ख़त जो पहुँचा नहीं
>> 27 October 2010
तुम्हें याद है वो बत्ती के गुल हो जाने और घर वालों के सो जाने पर, अपनी जुडी छतों पर चाँद उतर आया था । जब नीम की पीली पत्तियाँ झर रही थीं और सफ़ेद फूलों की महक धीमे-धीमे पसर गयी थी । और तुम्हारी गोद में सर रखकर मेरी साँसों ने तुम्हारी साँसों को छुआ था । तब तुमने कहा था "देखो चाँद मुस्कुरा रहा है" । मेरे कहने पर कि "चाँद मियाँ मुँह उधर करो" तो चाँद कैसे खिलखिला दिया था । और तुम लज़ा गयीं थीं ।
चाँद अब भी छत पर उतरता है । रातें आज भी देहरी पर ठहरती है । साँसें तेरा नाम अब भी गुनगुनाती हैं....
अच्छा वो याद है तुमको, बारिश में भीगती सड़क के ढलान पर से उतरते हुए, हम सूखे बच निकले थे और तुमने वो छाता फैंक दिया था । और खिलखिलाती हुई दौड़ पड़ी थीं । फिर चार रोज़ तक मैं छींकते हुए बिस्तर में रहा था ।
उस रोज़ के तुम्हारे गीले ओठों की महक आज तक मेरे ओठों पर चस्पां है....
और उस बार के जन्मदिन के लिए जब मैं सर्दी से ठिठुरती ट्रेन में, रात का सफ़र कर, तुम्हारे हॉस्टल के गेट पर पहुँचा था । तब कैसे बेचारों सी एक्टिंग कर के उस चौकीदार को पिघलाया था । मुझे याद है वो मेरा इक्कीसवाँ और तुम्हारा उन्नीसवाँ बरस था ।
तुम्हारा दिया उस रोज़ का गुलाब आज भी सिरहाने रखी डायरी में रोता है....
तुमने पिछली दफा पूँछा था ना कि सुकून कहाँ मिलता है ?....सेवंती के पत्तों पर बिखरी तुम्हारी खिलखिलाहट में, छज्जे पर से टपकते गाढ़े अँधेरे से चिपकी तुम्हारी बातों में, सर्दियों की गुनगुनी धूप में औंधे पड़े हुए अलसाई तुम्हारी आँखों में.... खाली पड़े कमरे में एकाएक ही छन्न से आवाज़ करती तुम्हारी स्मृति में, बेतरतीब खुली पड़ी डायरी के सफहों पर तुम्हारे नाम लिखी नज्मों में, ढलती हुई शामों और उदास जागती रातों में क़तरा-क़तरा ख़त्म होने में....
होती गैरत तो उस रोज़ ही ना मर जाता मैं....देहरी पर तेरी जब पेड़ सा खड़ा था मैं....लाश डोली में तेरी, कांधों पर लिए जाते थे ....अंजाम यही ठीक है मेरा....मौत हर रोज़ ही आती है....मगर नहीं आती
.
* चित्र गूगल से
23 comments:
ओह कितना दर्द है इन चंद पँक्तिओं मे। हमेशा की तरह भावमय रचना। शुभकामनायें।
"लिखते रहे हैं तुम्हें रोज़ ही मगर ख्वाहिशों के ख़त कभी भेजे ही नहीं..."
बिलकुल गुल्ज़ाराना माहौल बना दिया आज तो... स्मृतियाँ हाथ थाम के कहीं ले चली हैं...
oh, bahut marmik ....
आप बहुत अच्छा लिखते हैं , सुकून की बातें करते करते यक-ब-यक पैंतरा बदल डाला ...सीधे डोली और लाश ...मन इतना कुछ शॉक की तरह बर्दाश्त नहीं करता . ...
Nihayat achha likhte hain aap....har lafz,har pankti me ateet ne diya dard maujood hai...badee shiddat ke saath..
कुछ कहने लायक नही छोडते आप्………………निशब्द कर देते हैं……………दर्द की इतनी मार्मिक अभिव्यक्ति।
itna dard...
mann ajeeb sa ho gaya hai...
दुख का प्रवाह, मैं लड़खड़ा गया।
दिल से लिखा गया है.
बहुत दर्द..................मौत हर रोज़ ही आती है....मगर नहीं आती
बहुत खूब लिखा है!
बहुत दर्द का आभास करा रही है. दो-तिन बार पढ़ चुकी हूँ अब तक.
मौत हर रोज ही आती है, मगर नहीं आती. बहुत मार्मिक है.
bahoot khoob , padh kar sakoon mila !!!
खत नही ये दस्तावेज़ है ... सच में अनिल जी अगर ये पहुँच जाता तो वो मार जाती जीते जी .... ग़ज़ब लिखते हो आप ...
bahut achcha likha hai.
इस ज्योति पर्व का उजास
जगमगाता रहे आप में जीवन भर
दीपमालिका की अनगिन पांती
आलोकित करे पथ आपका पल पल
मंगलमय कल्याणकारी हो आगामी वर्ष
सुख समृद्धि शांति उल्लास की
आशीष वृष्टि करे आप पर, आपके प्रियजनों पर
आपको सपरिवार दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाएं.
सादर
डोरोथी.
:-) Hamara nazaria thoda alag hai... zindgi rukti nahi..chalti jaati hai....likhawat ki baat karoon to last para se dil bhar aata hai...
Maut ho dusmano ki kya pata agale mod par koi intezaar mein ho :-)
यह खत लिखा भी नही गया है दर असल
देर से आने को माफ़ी चाहती हूँ
मेरे पास कोई शब्द ही नही है कहने को
बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति
कभी यहाँ भी आइये
www.deepti09sharma.blogspot.com
anil ji
dard ki to inteha ho gayi hai .. kya kahe .. bas chupchaap padh gaya , thodi der khamosh raha , phir ek baar padha .. ab cooment me kya likhu , samajh nahi pp raha hoon ..
vijay
kavitao ke man se ...
pls visit my blog - poemsofvijay.blogspot.com
आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति , बधाई ......
कहाँ गुम हो मियाँ इतने दिनों..शब्दों की खनक सुने वक्त हो चला..कहानियाँ लिखी जा रही हैं या जी जा रही हैं? ;-)
कहाँ गायब हो गए गुरु ???
मैंने अपना पुराना ब्लॉग खो दिया है..
कृपया मेरे नए ब्लॉग को फोलो करें... मेरा नया बसेरा.......
Post a Comment