जिंदा रहने का सबब
>> 07 October 2010
कॉलेज के दिनों की मेरे पास कोई भी स्मृति शेष नहीं । जिसे किसी तनहा रात के लिये मैंने सहेज कर रखा हो । वो तीन बरस मैंने सिनेमा की दुनिया में बिता दिये । यदि होते भी तो क्या होता ? किसी हसीना के, अल्हड़पन के दिनों में लिखे ख़त या बिछुड़े हुए चन्द दोस्तों की जमा यादें । मगर अफ़सोस ये कि इसका कोई मलाल नहीं ।
अपने दोनों कॉलेज के दिन मुझे बेमतलब नज़र आते हैं । उस दौरान ना तो मोहब्बत की, ना किसी जहीन इंसान को दोस्त पाया । कम-स-कम किसी सुलगती रात में उलझे हुए, मोहब्बत के पुराने किस्सों को याद कर, उस जहीन से गुफ्तगू कर लेता । यूँ कि ऐसा हुआ नहीं, सो उन दिनों की स्मृतियों पर धूल चढ़ती चली जा रही है । और एक रोज़, बस सर्टीफिकेट पर गुदे रह जायेंगे वो दिन ।
कॉलेज के उस पार से लेकर इस पार तक, कई बरस लम्बा फासला है । मगर इतना लम्बा नहीं कि एक जाम जितना भी नशा दे पाए । बीते उन दिनों को उलटने-पलटने पर बामुश्किल चन्द शक्लें बाहर निकलेगीं। जो एक दूजे के अश्लील मज़ाक पर खिलखिला उठेंगी । और किसी जरुरी बात के आने पर लुप्त भाषा में तब्दील हो जायेंगी । वो लुप्तता एक क़सक छोड़ जाती है । बिल्कुल बारीक, बहुत तेज़ चुभती, धँसती हुई ।
मेरी एक दोस्त अक्सर मुझसे पूँछा करती थी....कि तुम्हें तनहा, उनीदीं रातें इतनी पसंद क्यों हैं ? मैंने कभी उसे जवाब नहीं दिया । यदि देता तो जरुर कहता....क्योंकि वे मुझे जिंदा रखती हैं । जानता हूँ, इसे सुनकर वो सहज नहीं रह पाती । शायद इसीलिए हमारी मुलाकातों के आखिरी दिनों में उसने मुझे जिंदादिल कहा था । ना जाने इन भविष्य के दिनों में कहाँ होगी ? सोचता हूँ, क्या अब तलक भी उसे वो सवाल याद होगा ? फिर से किसी उलझी रात में, खुद की जिंदादिली को उतार फैंकूँगा ।
सिगरेट का स्वाद चखते मेरे कुँवारे होंठ, ऐसी रातों में कसैले हो उठते हैं । गोया कि हिदायत दी हो....मियाँ अब बस भी करो । मेरी और उनकी, कभी ऐसी रातों में बनी नहीं । जिस रात को भी पसंद किया, बस डेरा डाल लिया । और फिर ऐसी रातों में खूब-खूब जीता हूँ । ये मेरे जिंदा रहने का सबब हैं....
19 comments:
चलिए, यह सबब भी जाना...बहुत बढ़िया.
जीने का सबब तन्हाई भी होती है..
-यादें सिर्फ धुंधली होती हैं , कभी मिटती नहीं.
कॉलेज कि कोई खास बात नहीं फिर भी यादें हैं जो साथ दे रही हैं ...अच्छी प्रस्तुति
सही हिदायत मिली... मियाँ अब बस भी करो :)
कितना गज़ब का लेखन है ……………तरोताज़ा कर दी यादें मगर ये भी उतना ही सच है कि शायद कुछ शक्लें ही रह गयी हैं अब यादो मे ……
जाने कहाँ गये वो लोग
सब यादो की धरोहर बन गये
स्मृतियो को अपने साथ बहा ले गये।
अनिल भाई, आप खूब मौज से जियो, पर एक सलाह है, अपने कुंआरे होठों को सिगरेठ से दूर रखो।
बड़ा ख़ूबसूरत लिखा है...
तनहा और उनींदी रातें और सिगरेट का कसैला स्वाद....सुन्दर शैली..
उनिंदी ... तन्हा रातें ... जिंदा रहने का सबब .... अनिल जी आपके लिखे में डूब जाता हूँ अक्सर ... कमाल करते हैं आप ...
खुदा ही जाने जिन्दा रहने का क्या सबब है....मौत तो बार-बार होती है बेसबब भी होती है. जिन्दादिली का लिहाफ पहने रहिये....भीड़ लगी रहती है....दोस्त दोस्त जैसे लगते है....
ab lekh par aate hain....sansmaran ki bayani achchi hai...kahi na kahi aapki jadugari missing hai.....aisa laga hamein ......galat bhi ho sakte hain ham :-)
मुलाकातों के आखिरी दिनों में उसने मुझे जिंदादिल कहा...kai baar ham apne apno ko samajh he nahi paate hai.... ya fir ham jaante hue bhi nahi keh paate...
बरसो बरस का फासला भी यादों को मिटा नहीं सकता...जिन्दगी का सबब बनी रहती है यादें ..जिंदा रहने का सलीका कोई सीखे हमसे.कोई मौसम हो सरे शाख चहकते रहना...
सवाल बहुरूपिये होते हैं. जिन्हें हम भूला बिसरा हुआ मान लेते हैं वे ऐसी उनींदी रातों में पोस्ट बन कर जागते रहते हैं.
ाइसे कई सबब जीने का सहारा बनते हैं बेशक कितना दर्द हो। बहुत अच्छरचना
शुभकामनायें।
तनहा रातें अकेली होती हैं और चाहिये भी जीने के लिये।
मुझे भी बहुत पसंद हैं तनहा उनींदी रातें. इसीलिये ये लाइन बेहद पसंद आयी " तुम्हें तनहा, उनीदीं रातें इतनी पसंद क्यों हैं ? मैंने कभी उसे जवाब नहीं दिया । यदि देता तो जरुर कहता....क्योंकि वे मुझे जिंदा रखती हैं "
सच, ऐसी रातें जिंदा रखती हैं, और, जिंदादिली को कभी मत छोड़ना.
वे दिन थे जब जीते थे और पीते थे,
शायद अब जीने के लिए पीते हैं !
वे चार साल, वे चंद चेहरे जिनको दोस्त समझते थे,
अब सब गलत से जान पड़ते हैं,
पर एक फैसला था जो उस समय बड़ा दार्शनिक बन कर दिया था,
अब सोचता हूँ के काश, बचपने में ही उन्हें रोक लिया होता...
शायद इन तनहा रातों में एक साथी और होता !
मैं इस साल NITH से निकल आऊंगा, फिर मैं भी कुछ साल बाद भूल जाऊंगा, पर अब सोचता हूँ कि कुछ यादें सहेज कर रख लूं...उन तनहा रातों में अकेले हँसने के लिए...
जितना कुछ भी कहूं कम है...जबरदस्त लेखन प्रतिभा है आपमें..अफ़सोस इतने दिनों तक इससे दूर रहा,....
यूँ ही लिखते रहें...मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी के लिए धन्यवाद....मेरी नयी पोस्ट पर भी आएँ....
अच्छा लगा जीने का यह सबब भी जानकर!
मेरी और उनकी, कभी ऐसी रातों में बनी नहीं । जिस रात को भी पसंद किया, बस डेरा डाल लिया । और फिर ऐसी रातों में खूब-खूब जीता हूँ । ये मेरे जिंदा रहने का सबब हैं....
अनिल जी आज बहुत कुछ जाना .....प्रेम यूँ ही हर किसी से नहीं हो जाता .....
वो कोई नसीबों वाला ही होगा जो आप जैसे लेखक की आँखों में बस गया है ....
और जिन्दा रहने का सबब भी ......
इश्क ने कुछ इस तरह लिखे अपने नसीब
वो मेरी न हो सकी मैं तेरा न हो सका .......
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