गुमनाम शख़्स
>> 14 October 2010
दिन डूबते ही लैम्पपोस्ट जाग जाता था । और अपने उजाले में, मुख्य सड़क पर से मुड़कर, उतरती हुई गली को रौशन कर देता था । वहीँ गली के ख़त्म होते ही, एक छोर पर वो रहा करता था । उदास चेहरों पर, अपनी बातों से, मुस्कान छेड़ देने वाला । बच्चों के झुण्ड में टॉफियाँ बाँट कर, बाद के दिनों में, उनका सांता क्लॉज बन जाने वाला । दूसरों की चिट्ठियों को पढ़ते हुए, उनकी उदासी में उदास और ख़ुशी में खिलखिला देने वाला । एक गुमनान शख़्स....
हर शाम ही खान बाबा, वहाँ कोई ग़ज़ल गुनगुनाया करते थे और वो अपनी हथेलियों से कोई धुन छेड़ा करता था । महफ़िल के ढलने के बाद, वो सारी वाहवाही खान बाबा के खाते में डाल दिया करता था । हर रोज़, टोकते हुए, गफूर मियाँ से बीड़ी शेयर करता था । और मुरली काका की खैनी, बड़े शौक से खाता था ।
लम्बी साहित्यिक बहसों में, एकाएक ही, उसके किसी रूमानी तर्क पर, त्रिपाठी जी और अख्तर मियाँ, वाह-वाह की तान छेड़ देते थे । और जब चाँद सुस्ताने लगता तो, जबरन उन्हें घर तक विदा करके आता था । उनके घर की औरतों को उससे, सौत सा, रश्क हुआ करता था । और उनके मर्द अगले रोज़ फिर, कृष्ण की बाँसुरी से मोह में, खिंचे चले आते थे ।
ना जाने किसने नाम दिया था उसे 'शिकोहाबादी' । पूँछने पर, अक्सर ही, हँस कर टाल जाया करता था । उसमें छिपे धर्म और मजहब के सवालात । कोई कहता मियाँ 'शिकोहाबादी', तो कोई ज़नाब कह कर पुकारता उसे । कभी कोई यार 'शिकोहाबादी', तो कभी कोई 'भाई जान', कहकर काम चला लेता था । कुछ भी हो, हर एक के दर्द की दवा था ।
फिर एक रोज़ दंगे छिड़ गए और शहर की हर गली, हर मोड़ का उसके तले दम घुटने लगा । उन दिनों उस गली में वो कई दफा सुलह की ठंडी हवा बना । कई चिंगारियाँ उसके तले दबकर शांत हुईं । फिर मौसम के मिजाज़ बिगड़े और बिगड़ते चले गए । लोग अपने ही घरों में बीमार हुए बैठे थे । उस तपिश में कई झुलसे और कई धुएँ में परिवर्तित हो गए ।
वो पहले भी गुमनाम था । वो आज भी गुमनाम है । ना तो चिता की लकड़ी मिली, ना ही कब्र नसीब हुई उसे । वो जला और राख भी हुआ । बेनाम था शायद, बेमौत मारा गया । नहीं तो गिना जाता, किसी हिस्से में । जिसे चिंगारी बनाते वो । और फिर से लगती आग कहीं । फिर कहीं कोई और भी मरता....
न जाने, फैसले के बाद, कौन सा हिस्सा मिला होगा उसे....
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* चित्र गूगल से
19 comments:
kya likh diya anil bhai ye zabardast hi yaar sari kahani mila ke jaldi ki tumhari ek kitab nikalwani padegi..:))
हमेशा की तरह...बस, पढ़कर शून्य में ताक रहा हूँ..बहुत उम्दा..
शुक्रिया फैज़ भाई....
aur m us kitaab ko pakke se khareedane wali hu.. Anil ji, aapke signature k baad... fir aisi 2-4 kitaabein publish hone k baad to aap vyast ho jayenge.. :)
बहुत सुन्दर भावमय रचना। बधाई।
वो पहले भी गुमनाम था । वो आज भी गुमनाम है । ना तो चिता की लकड़ी मिली, ना ही कब्र नसीब हुई उसे । वो जला और राख भी हुआ । बेनाम था शायद, बेमौत मारा गया । नहीं तो गिना जाता, किसी हिस्से में ।
शायद उसने धर्म, मज़हब और नाम से परे एक इन्सान होने की कीमत चुकाई... इंसानियत से बड़ी भी पहचान होती है क्या किसी की ? जाने कौन सी दुनिया में जी रहा हैं हम...
न जाने, फैसले के बाद, कौन सा हिस्सा मिला होगा उसे.... सोचने पर मजबूर कर दिया आपने...
बहुत मर्मस्पर्शी ..
its a touchy one
very nice :)
BTW i m one of your fan :)
keep it up
ओह ! बेहद मर्मस्पर्शी , सोचने को मजबूर करती।
न जाने, फैसले के बाद, कौन सा हिस्सा मिला होगा उसे....
एक बार फ़िर से लाज़वाब रचना ...
मार्मिक चित्रण।
ऐसे शिकोहाबादी अक्सर गुमनाम ही रहते हैं ।
बहुत ही ख़ूबसूरत रचना...
आपकी कलम का यही तो जादू है..
यूँही लिखते रहें..
बहुत खूब...मेरे ब्लॉग में इस बार...ऐसा क्यूँ मेरे मन में आता है....
ममस्पर्शी दिल को छु जाता है आपका लिखा हुआ ..बेहतरीन लिखते हैं आप शुक्रिया
अच्छा लगा..मगर बड़े सस्ते मे निपटा दिया मियाँ आपने..गुमनामियत को थोड़ा और तफ़सीलियत देते तो मजा आता :-)
my hindi is bad. Even though I did it till class 10th. Was planning to learn more of it. maybe your blog will help. Keep up the great work.
काश कोई इंसान ही रहने देता उसको, नाम में क्या रखा है...
विजयादशमी की अनन्त शुभकामनायें. पोस्ट पढती हूं, बाद में.
anil ji..kehani sabki adhuri hi hai....sab apna apna hissa talaash rahe hai..na jane kisko kaun sa mil jaye..so touchy!
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