एक भूली सी दास्तान
>> 20 October 2010
वे कनेरों पर आई पीली कलियों के दिन थे । कुछ दबे, उलझे अरमानों के दिन । जो सूरज के सुस्ताते ही चूल्हे से निकलने वाले धुएँ के साथ उड़ जाते और सुबह की ओस की बूँदों से चिपक कर मन को भिगो जाते । इस तरह एक और नया दिन बीत जाता । तब भविष्य था ही कहाँ ? केवल वर्तमान था, जो नदी की धारा सा बहता चला जाता था ।
उन्हीं दिनों में, जब खिली धूप में, टाट पर बैठ ओलम और गिनतियों का हिसाब-किताब रटाया जाता था । और उसके बार-बार दोहराने की ध्वनि दूर-दूर तक जाती थी । जब लकड़ी की पट्टी को काला कर, उस पर खड्डी से लिखे सफ़ेद अक्षर, धूप दिखाकर चमक उठते ।
किसी गुनगुनी दोपहर को, पगडण्डी पर से गुजरते हुए, उसने साथ के खेत में लक्ष्मी को गाय के चारे के बोझ में उलझा पाया था । तब उसके पास पहुँच, बोझ को उठा, उसके सिर पर रखते हुए कहा था "लच्छो, हम तुमसे कुछ कहना चाहते हैं" । तब लक्ष्मी ने बस इतना कहा था "हम सब जानते हैं कि क्या कहना चाहते हो" और चल दी थी । उसके बढ़ते हुए क़दमों के पीछे एक आवाज़ आई थी "अरे सुनो तो" । और उसे प्रत्युत्तर में "दद्दा आ रहे हैं" के शब्द मिले थे ।
तब उनके मध्य भूले भटके, अधिक से अधिक, चार-छह शब्दों का आदान प्रदान हो पाया करता था । वो बंदिशों का मौसम था और क़दमों की एक तय सीमा रेखा हुआ करती थी । जब-तब कहीं आँख उलझ गयी या कोई परछाई दिख गयी । या पीछे रह गए पगडंडियों पर क़दमों के निशान, जिन पर अपने कदम रख सुख की धारा तृप्त कर देती । जैसे कि एक के ओठों ने दूसरे के ओठों का स्पर्श कर लिया हो ।
तब उस भूली सी दास्तान में आखिरी के रोज़ केवल यह हुआ था कि, गीली आँखों के साथ अपने नए घर को विदा होने से पहले लक्ष्मी ने छुटकी के पास उसके लिए एक पत्र छोड़ा था । जिसमें उसने अपने स्कूल के दिनों में सीखे, टूटे-फूटे हर्फों में लिखा था "हँसते हुए अच्छे लगते हो । तुम्हें हमारी कसम, यूँ ही जिंदगी भर मुस्कुराते रहना ।"
न मालूम वो कसम कब तक जीवित रह पायी होगी....
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* चित्र गूगल से
17 comments:
इस कसम की खातिर ही सही..मुस्कराते रहो..बहुत उम्दा लेखन! वाह!
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति !!
मुस्कराते ही रहना पड़ेगा। कोई और विकल्प है क्या?
सच में हालात ऐसे ही आ जाते हैं कभी कभी..... उम्दा प्रस्तुति
पीले कनेरों का मौसम, कही अनकही बातों का मौसम, बंदिशों का मौसम, अनूठी तृप्ति का मौसम, बिन मिले बिछड़ने का मौसम, कसमों का मौसम... स्मृतियों का मौसम... मुस्कुराने का मौसम... एक छोटी सी कहानी में कितने ढेर सारे मौसम समेट दिये अनिल... पर एक शिकायत है... ये आजकल आप अपनी कहानी के पात्रों को मिलने क्यूँ नहीं देते... अंत आते-आते तक अलग कर देते हैं किसी न किसी बहाने :)
@Richa
बहुत सी कहानियां ऐसी होती हैं कि उसके समय, परिस्थिति, देशकाल के सत्य को झुठला नहीं सकते....
@ अनिल
हम्म... शिकायत के बाद की स्माइली नहीं देखी शायद आपने :)
सत्य को झुठला नहीं रहे हम... बस आपकी कहानी के पात्रों से थोड़ी सहानुभूति हो गई थी...
आपके लिखे के साथ जैसे बहने लगते हैं सब .... बहुत खूब अनिल जी ...
That was beautiful...as always :)
सादगी के साथ लिखी उम्दा प्रस्तुति । बहुत सुन्दर ।
बहुत मोहक ! कच्ची उम्र की किस गली में ले चले अनिल जी ... सब सपना ही तो लगता है ... लगता है आज कितने होशियार हो गए हैं हम ... कि वो कहानियाँ अब नहीं गढ़ सकते शायद
यही खासियत है आपकी आखिरी लाइन मे कितना कुछ कह दिया।
Bahut bhavuk kar denewali dastaan!
सच कोई भूली सी ही दास्तान है..कि जिंदगी के फीके पड़ गये पन्नों से गुमशुदा कोई वक्त रहा होगा..जब उसके कदमों कि निशां पर अपने कदम रख देने भर से वहीं सुख का सोता फूट पड़ता था...चार-छै शब्दों मे जिंदगी अपनी खुशी तराश लेती होगी..वर्जनाओं के मौसम के ढीठ पल..मगर जब चंद टूटे-फूटे हर्फ़ो मे बाकी की जिंदगी का मुस्तकबिल लिख दिया गया हो..तो सांसे भी किसी टूटी कसम की तरह ताउम्र हलक मे चुभती रहती होंगी..और कैसी कसम है कि न जीने लायक छोड़ा न मरने लायक ही..
कुछ प्रेम कथाएँ इतनी ही छोटी होती हैं..भूलती जाती हैं..वक्त की धूल तले दबते..
शायद जीवित ही हो वो कसम भी..
अनिल भाई छा गए आप तो...चलिए अब जरा मुस्कुरा कर दिखाईये....हाँ...अब यूँ ही मुस्कुराते रहिये हमेशा...
मेरे ब्लॉग पर इस बार अग्निपरीक्षा ....
पगडंडियों पर क़दमों के निशान, जिन पर अपने कदम रख सुख की धारा तृप्त कर देती । जैसे कि एक के ओठों ने दूसरे के ओठों का स्पर्श कर लिया हो ।
कमाल के भाव हैं.
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