मेरे कमरे की दीवार
>> 24 October 2009
संभव है तुम्हें ये बहुत अजीब लगे...कि आजकल मैंने अपने कमरे की दीवार से दोस्ती कर ली है...जब थक जाता हूँ तो यूँ ही मुझे निहारा करती है और मुझसे ढेर सारी बातें करती है...हाँ वो सभी बातें जो मैं करना चाहता हूँ...वो ध्यानमग्न होकर मेरी बातों में खो जाती है...पता है अब तक की गयी उससे सभी बातें उसे याद हैं...और जब तब वो मुझे उसी दुनिया में ले जाती है जहां वो सभी सपने और वो सभी बातें बिखरी पड़ी होती हैं...वो हर बात से मेरी मुलाकात कराती है
अभी कल ही तो देखा था मैंने अपने कमरे की दीवार को...बिलकुल एकटक मुझे प्यार से देखे जा रही थी...निगोडी को जरा सी भी शर्म नहीं आती...आये दिन ऐसे ही मुझे देखती रहती है...शायद मेरी आदत उसे भी लग गयी है...मैं भी तो उसे यूँ ही एकटक देखता रहता हूँ...उसमें कुछ खोजता सा...शायद वो बातें...वो पुरानी यादें...
शायद तुम्हारा चेहरा...या शायद वो गुलाब जो मैंने पहली रोज़ तुम्हें दिया था...वो हवा में उड़ते हुए बाल जिनमें उस गुलाब को मैंने लगाया था...वो सब मुझे दिखाती है...शायद ऐसा लगता है कि वो कोई सिनेमा का पर्दा है और उसके पीछे हसीं ख्वाबों से सजी हुई दुनिया है जो रील बाई रील चल रही है...कहीं आगे बढ़ने या पीछे करने की जरूरत नहीं पड़ती...वो मुझे वही सब दिखाती है जो मुझे देखना है...पता नहीं उसे कैसे मालूम कि मैं यही देखना चाहता था
उसने भी तो वो सब कुछ याद कर रखा है...और उसके पास हर वो तमाम यादों को याद कर कर मेरे सामने लाने का तजुर्बा होता गया है...उसे सब कुछ याद है...तुम्हारी और मेरी उससे चिपकी हुई ढेर सारी बातें मुझे कल ही उसने मेरा हाथ पकड़ कर स्पर्श करायीं...जो हमने देर रात तक उससे अपने अपने सर को टिकाकर आपस में की थीं.
वो तुम्हारी उँगलियों के स्पर्श से बनी तमाम कलाकृतियाँ मुझे मुस्कुराती सी नज़र आती हैं. तुम्हारे नयनों से उधार लिए गए रंगों को वो आज भी बदस्तूर संभाले हुए है...हर रोज़ एक नया रंग नज़र आता है मुझे उसमें...हाँ तुम्हारा रंग...प्यार का रंग...ख़ुशी का रंग...तकरार का रंग...तुम्हारे होठों का रंग...तुम्हारे ख्यालों का रंग...उस एहसास का रंग जो साथ होने से बनता है.
कल ही वो इन तमाम रंगों में रंगी मुझे इन्द्रधनुष सी जान पड़ी...और बाहें फैलाए मुझे अपने आप में खोयी हुई दुनिया मेरे सामने ले आई...हाँ वही सब कुछ तो था...खुला हुआ दूर तक आसमान...महकते हुए गुलाब...बिखरे पड़े फुर्सत के लम्हे...तितलियों की तरह आपस में बातें करती हवा में उड़ती तेरी मेरी बातें...और तुम्हारे दामन से लिपटा हुआ में...वो तुम्हारे उँगलियों का मेरे सीने पर बेतरतीब सी शक्लें बनाना...और बिलकुल पास महसूस होती हुई तेरी मेरी साँसे...और घुलती हुई खुशबू.
हाँ मेरे कमरे की दीवार आज भी सब कुछ संभाले हुए है...आज भी वो उस एहसास को साथ लेकर रहती है...जो तेरे और मेरे होने से बनता है...जो स्पर्श से बनता है...जो साँसों के घुलने से बनता है...जो आपस में बात करती हुई तेरी-मेरी बातों से बनता है
25 comments:
हाँ मेरे कमरे की दीवार आज भी सब कुछ संभाले हुए है...
ऐसा लगा कि सैकडों कविताएँ आपने अकस्मात एक साथ उडेल दी हो
रसमयी साहित्यिक लेख, सुन्दर !
badiya kavita
bahut bhinn kism ka ahsaas hai....
ek khubsurat bhaawamay rachana.....
BAHUT HI SUNDAR BHAV.
bahut hi sunder bhaav ke saath ek khoobsoorat rachna....
ANIL JI ...... KAMAAL KA LIKHA IS BAAR BHI ...
DEEVAARON SE MIL KAR RONA ACHHA LAGTA HAI .... YAAD AA GAYEE YE GAZAL BARBAS HI ...
bahut hi khoobsurat pyaar ka saath
भावों को लिखने के मामले में आप सुंदर लिखते है। सच पूछिए हम उसमें बहते चले जाते है।
kya khoob likha hai Anil....
aise hi likhte raho...
दिल को छू लेने वाली अभिव्यक्ति .. बहुत बढिया लिखा है !!
कितने दिलों की बात कह गये भई इतनी सुन्दरता से..
अनिल जी अभी तो आपका सन्दूक भी पूरा नहीं खुला था अब दीवर की परतें उधेडने लगे। यदों की कुछ् खुरचने बस । बहुत भावमय रचना लिखते हैं आप
bahut hi acche se explain kiya hai
क्या बात है अनिल भाई ... बहुत बढ़िया ...
Bahut sunder bhavpurn rachna.
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति.. साधुवाद....
पता नहीं क्यों, आपको पढ़ता हूं तो स्मृति की शेल्फ से कोई पुरानी लड़की टटोलने लगता हूं। वह जो कल्पना में ज्यादा थी वास्तविकता की बजाय!
जिन रातों में नींद उड़ जाती है
क्या कहर की रातें होती है
दरवाज़ों से टकरा जाते हैं
दीवारों से बातेम होती है:)
बोले तो झकास भाई तुस्सी ग्रेट हो
शायद तुम्हारा चेहरा...या शायद वो गुलाब जो मैंने पहली रोज़ तुम्हें दिया था...वो हवा में उड़ते हुए बाल जिनमें उस गुलाब को मैंने लगाया था...वो सब मुझे दिखाती है...शायद ऐसा लगता है कि वो कोई सिनेमा का पर्दा है और उसके पीछे हसीं ख्वाबों से सजी हुई दुनिया है जो रील बाई रील चल रही है...कहीं आगे बढ़ने या पीछे करने की जरूरत नहीं पड़ती...वो मुझे वही सब दिखाती है जो मुझे देखना है...पता नहीं उसे कैसे मालूम कि मैं यही देखना चाहता था
andaaz pasand aaya aapka..
दिल को छू लेने वाली बेहतरीन भावाभिव्यक्ति...और घुलती हुई खुशबू.
ये एहसास और ये दीवार यूं ही सलामत रहे, यही कामना है मेरी।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाएं।
आपके कमरे की ये बातूनी दीवार हमेशा सलामत रहे :) खूबसूरत रचना...
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