दहलीज के उस पार
>> 28 October 2009
हम जानते हैं कि उस दहलीज पर हम फिर कभी नहीं पहुँच सकते जिसको पार करते ही हमारे वो सपने बिखरे पड़े हैं. जिसके उस पार एक एक करके चुने जाने लायक हजारों बिखरी पड़ी यादें हैं. हाँ वो यादें जिन्हें गले से लगाने को मन करता है. मन करता है कि उनसे हाले दिल पुँछ बैठूं. उनसे ढेर सारी गपशप करूँ. उनके साथ दिन भर खेलूं और रात को तारों के नीचे लेट उन्हें एक एक करके गिनने की होड़ करूँ. फलां तारा कितना अच्छा है या उसकी पता है वो कहानी थी जो कि नानी ने हमे उस रोज़ सुनाई थी.
हाँ उस दहलीज को बचपन की दहलीज कहते हैं. वो जो हमसे बहुत पीछे छूट चुका है और जब तब वो हमें दूर से मुस्कुराते हुए देखता है. कभी कभी तो लगता है कि वो कह रहा हो क्यों बच्चू हो गए बड़े, अब भुगतो, पहले तो जब हमारे साथ थे तब हमेशा बड़े होने की सोचा करते थे. अब हो गए न बड़े, बोलो क्या पा लिया और हम सोचते हैं कि उसकी इस बात का क्या जवाब दें, क्या कहें उससे.
बचपन की दहलीज के उस पार बहुत सारे सपने आज भी मौजूद हैं जो बचपन के साथ ही जाते रहे. बचपन था तो वो सपने थे जो हर दिन हमारे साथ रहते और हम उन्हें बड़ी संजीदगी से अपने पास रखते. उन्हीं सपनों के बीच एक नन्हा मुन्हा सा सपना हुआ करता था "ढेर सारे कंचे जीतने का सपना". हाँ जिन्हें अंग्रेजी में शायद मार्बल्स कहते हैं.
हम हर रोज़ सोचते कि काश कि ऐसा हो कि हमारा निशाना सबसे ज्यादा अच्छा हो जाए और हम सभी के सभी बच्चों के कंचे जीत लें. काश कि ऐसा हो कि हमारे पास ढेर सारे कंचे हो और हम उन पर फक्र करें कि देखा हमारे पास इतने कंचे हैं. बोलो हैं क्या तुम्हारे पास...कैसे होंगे तुम्हारा निशाना हम जैसा थोड़े है जो इतने जीत लोगे. लेकिन हमारा निशाना इतना अच्छा कभी हुआ ही नहीं कि हम अपनी कॉलोनी के सभी लड़कों से जीत पाते.
उधर बचपन में हमारा छोटा भाई जो हमसे तीन बरस छोटा हुआ करता था...हुआ करता था क्या...अभी भी है पूरे तीन बरस छोटा. इतना बड़ा निशानची था कि उसकी वजह से पूरी कॉलोनी में हाहाकार हुआ करता था. मजाल है कि उससे कोई जीत भी पाए. यूँ कह सकते हैं कि कंचों का बहुत बड़ा खिलाडी. माशाल्लाह उसका निशाना ऐसा था कि कितना भी दूर कंचा रखा हो वो उसको अपना निशाना बना लेता था.
और देखते ही देखते वो कब 2 किलो से लेकर 5 किलो के डिब्बे जीते हुए कंचों से भर लेता पता ही नहीं चलता और हम उसके उलट अक्सर उसी से लिए हुए कंचे बाहर जाकर हार जाते. तब वो माँ से कहता कि भैया हमारे सारे कंचे हार जायेंगे. देखो न माँ भैया को खेलने से मना करो. हम अब और कंचे नहीं देंगे. कई बार ऐसा हुआ कि उसके ठीक से पढाई में ध्यान न देने पर हमारे पिताजी उसके कंचों से भरा हुआ डब्बा दूर जाकर गुस्से में गटर में फेंक आते. लेकिन वो तीन रोज़ बाद ही फिर से तमाम कंचे इकट्ठे कर लेता.
बचपन धीरे धीरे अपनी पीठ पर बस्ता लाधे गुजर गया. हम और हमारा सपना भी शायद उस बस्ते में कहीं हो. किताबों के दरमियान उस मोरपंख के साथ रखा हुआ चला गया. जिसे बचपन में हम म्बदे चाव से रखते थे कि इसके एक से दो हो जाते हैं. भाई के जीतने पर अच्छा लगता था कि देखो तो कितना बड़ा निशानेबाज है. उधर जब कंचों का शौक उतरा तो क्रिकेट ने अपनी बाहें फैला दीं. उस में भी हमारे छोटे भाई ने ही कमाल दिखाया और हम अक्सर बहुत जल्दी आउट हो जाते. हाँ जब कभी अपनी टीम के विनिंग प्लेयर भले रहे हों लेकिन अपने भाई की तरह आलराउंडर नहीं. वो क्रिकेट में भी सबका चहेता था.
अक्सर ऐसा होता कि सोते से उठने से पहले ही कभी मैं उसका चेहरा बिगाड़ देता तो कभी वो मेरा. हमारा चेहरा देखकर पूरे घर में हंसी गूंजती रहती. कभी कभी तो हम भूत वाला चेहरा बनाकर ठीक एक दूसरे के सामने खड़े हो जाते और फिर जगाते कि उठो. उठते ही इतना डरावना चेहरा देखकर तो कोई भी डर जाता. फिर एक दूसरे को मारने को दौड़ते और जिसने शरारत की वो माँ के पीछे छुप कर चिढाता. जिसके साथ शरारत हुई वो माँ से शिकायत करता. माँ देखो इसने ऐसा किया, हम इसको नहीं छोडेंगे.
अब देखो तो आज इस दहलीज के पार कोसों दूर निकल आने पर वो सब बहुत याद आता है. वो भाई के गले में हाथ डालकर घूमना. साथ स्कूल जाना. एक ही झूले पर एक साथ झूलना. मेरा उसको तेज और ऊंचे झूले पर ना बैठने देना. अपना बड़ा होना जताना. स्कूल के बस्ते को टाँगे घर तक एक दूसरे का हाथ थामे चले आना. अब बहुत याद आता है. लगता है कि एक सुख जो हमसे दहलीज के उस पार रह गया.
अक्सर बचपन की दहलीज के उस पार हो आने का मन करता है. मन करता है कि एक दौड़ लगाऊं और पहुँच जाऊँ उस पार या ऐसी कोई कूद जिससे पार कर सकूं उस दहलीज को.
21 comments:
हाँ उस दहलीज को बचपन की दहलीज कहते हैं. वो जो हमसे बहुत पीछे छूट चुका है और जब तब वो हमें दूर से मुस्कुराते हुए देखता है. कभी कभी तो लगता है कि वो कह रहा हो क्यों बच्चू हो गए बड़े, अब भुगतो, पहले तो जब हमारे साथ थे तब हमेशा बड़े होने की सोचा करते थे. अब हो गए न बड़े, बोलो क्या पा लिया और हम सोचते हैं कि उसकी इस बात का क्या जवाब दें, क्या कहें उससे.
bahut sahi likha.... bilkul sachchi baat....
Anil mujhe is baat ko kahne me zara bhi sankoch nahin ki tum yuva bloggers me sabse achchhe likhne walon me ek ho aur allrounder bhi. bhale hi chhote bhai se kanchon ya cricket me nahin jeete lekin nihsandeh lekhan me tum usse kai guna behta hoge ye main janta hoon.
bachpan ki yaden aise hi tumhe khushee deti rahen...
Jai Hind...
अक्सर बचपन की दहलीज के उस पार हो आने का मन करता है. मन करता है कि एक दौड़ लगाऊं और पहुँच जाऊँ उस पार या ऐसी कोई कूद जिससे पार कर सकूं उस दहलीज को.
ये बात शायद हर दिल की है । बचपन है ही सुन्दर अवस्था। जिस की यादें हम कभी नहीं हूलते । शुभकामनाये। संदूक मे से आगे क्या निकलता है इन्तज़ार रहेगा आभार्
वो कह रहा हो क्यों बच्चू हो गए बड़े, अब भुगतो'
भुगत ही तो रहे है. आखिर कितने बडे हुए हम और फिर किन सन्दर्भों में. क्या हम बडे होते होते छोटे नही होते गये.
क्या खूब लिखा है आपने
wah dahliz,wah bachpan.....haye kya din the,wo bhi kya din the
जगजीत सिंह जी की ग़ज़ल याद आ गई.."कोई मुझको लौटा दे बचपन का सावन .................."
बहुत खूब लिखा है आपने.
बहुत अच्छा लगा पढ़कर ।
bas itna kahenge ki bachpan yaad aa gaya
कोई लौटा दे रे मेरे बीते हुए दिन..... पर बचपना नहीं लौटता ....
वाह भाई याद दिला दिए वो पुराने दिन बहुत सुंदर चर्चा...धन्यवाद जी!!
सच में बचपन के दिन इंसान कि ज़िन्दगी के सबसे खूबसूरत दिन होते है और एक बार ये दहलीज़ लाँघ कर आगे निकल आये तो सिर्फ़ यादें ही रह जाती हैं... बचपन कि यादों से सराबोर बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति...
अनिल,
क्या क्या लिख जाते हो। पूरे बचपन मलाल रहा कि पिताजी ने तीन चीजें न करने/खेलने दीं। पतंग, कंचे और गिल्ली दंडा।
हमने भी काँच के कंचो से भरे मर्तबान आंख भर भर के निहारे हैं और ठंडी आहें भरी हैं।
एक और सपना था कि अपने पास दो चरखिंयाँ हों एक मंझे वाली और एक सद्दी वाली और उसके साथ कम से कम पचास पतंगे।
कुछ ख्याब ख्यालों में कितने हसीन लगते हैं और इतने नाजुक कि इस उम्र में जब हम चाहें तो वो ख्याब जी सकते हैं, जी चाहता है कि उन ख्याबों का तिलिस्म यूँ ही सजा रहे। डर लगता है कि अगर उन कामों को करने का प्रयास किया और मन खुश नहीं हुआ तो उन ख्वाबों को भी बेजार होना पडेगा।
भाई हम भी नीरज कई तरह अनलकी रहे कम से कम पतंग, कंचे और गिल्ली डंडा इन सब मे हा शरारते तो खूब किया करता था
ohhhhh.........anil ji,
aaj to aap hamein bhi bachpan mein le gaye.........sach bachpan kitna masoom ,befikra hota hai........aur ye chahat ta-umra bani rahti hai .......kash ek baar bachpan dobara wapas aa jaye............wo gaana yaad aa gaya.
bachpan ke din bhi kya din the,udte firte titli ban.
बहुत ही सुन्दर है दहलीज को बताने का अन्दाजे ब्याँ ..........मै भी बचपन मे कुछ ज्यादा ही शरारती था!आप आँलराउन्डर लगते हो लिखने के क्षेत्र मे!
आपने तो दिल की बात लिख दी है anil जी ........... kanche, latoo की दुनिया .......... हम भी bachpan में khoob jit te थे और dabbon के dabbe bharte थे ............. फिर जब कभी बड़े भाई dekhte की hamaar dhyaan kanchon में jyaada लग रहा है ............ वो सब के सब dabbe utha कर baahar faik देते थे ............
बहुत ही lajawaab लिखा है anil जी .......... जो पोस्ट आपको अपनी याद kara दे वो सबसे safal लिखा हुवा है ......... और आप poore poore kaamyaab हैं ............ shukriiy ...........
कुछ चीजे कभी नहीं भूलती है .यह दहलीज भी उसी याद का एक हिस्सा है बहुत बढ़िया लिखते हैं आप ..
बहुत ही बढि़या संस्मरण, बचपन की यादों का साया ताउम्र साथ रहता है ।
कंचे देख कर बचपन याद आ गया, जिन्हें खूब संभाल कर रखा करते थे।
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स्त्री के चरित्र पर लांछन लगाती तकनीक।
चार्वाक: जिसे धर्मराज के सामने पीट-पीट कर मार डाला गया।
बचपन चला जाता है और बहुत सी चिंताए दे जाता है........काश वो बचपन फिर से मिल जाए....याद दिला दिए बचपन के दिन
Kash!!!!! bachpan laut sakta to Angithi k kinare baithe ajj hum saare bhai behen bhune uye aaloo kha rahe hote...mombatti ki roshni me ek dusre ko darawani kahaniyaan suna rahe hote...yaad dila diya aapne sab kuchh...ek baar fir bahut sundar lekh...
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