अज़ीज़-अज़-जान लड़की

>> 25 November 2009

पेड़, पौधे, पत्तियाँ, फूल, खुले लम्बे दूर तक फैले खेत कहीं बहुत पीछे छूटते जा रहे हैं. खुले मैदानों में खेलते बच्चे, पल्लू को मुंह में दबाएँ मुस्कुराती वे स्त्रियाँ, बैलगाड़ी, खिली धूप ये सब एक एक करके पीछे छूट गए हैं. मैं तुमसे आखिरी विदा लेने के बाद से अब तक यूँ ही इस चलती ट्रेन की खिड़की से सब पीछे छूटते देख रहा हूँ. पता है तुम अब भी मेरे साथ हो. मेरे जेहन में बिलकुल इस हवा की माफिक.

अब जब कि मैं आ गया हूँ अपने इस अनिश्चितकालीन सफ़र पर तो तुम्हें लिख के भेज देना चाहता हूँ वो सब एहसास, वो ढेर सारी बातें जो तुम्हारे होने से होती थीं और तुम्हारे ना होने से याद बन जाती थीं. मैं वो सब कह देना चाहता हूँ जो मैं हर उस पल कह देना चाहता था, जब तुम मेरे साथ होती थीं, मेरे पास होती थीं.

तुम जानती हो कि मैं अक्सर तुम्हारे हाथों को अपने हाथों में लेकर उनकी रेखाओं को गौर से देखा करता और तुम पूंछती कि क्या देख रहे हो ? पता है हर बार ही मैंने उन रेखाओं में अपना नाम तलाशने की कोशिश की और मैं रेखाओं की भाषा कभी समझता कहाँ था भला. ठीक उसी तरह जैसे कि ये ना समझ सका कि मैं अपने एहसासों को बयाँ करने की जुबाँ कहाँ से सीखूँ.

हर बार ही कहना चाहने और ना कह पाने के बीच मैं खो जाता तुम्हारी उन बातों में जिन्हें तुम कभी बालों को संवारते हुए, हाथ की चूड़ी को घुमाते हुए और फिर मेरी आँखों में मुस्कुराते हुए देखकर कहती. मैं, मेरा दिल, मेरा दिमाग सब कहाँ गम हो जाते. ये मुझे तुम्हारे वहाँ से चले जाने पर उस फिजा में बिखरी हुई बातों में घुले हुए नज़र आते. जब होश आता तब तक तुम जा चुकी होतीं. मैं खुद पर ही बस मुस्कुरा भर रह जाता.

ऐसे में जबकि मैं जा रहा हूँ तुमसे उस जानिब जहाँ से लौट कर आने का वक़्त पहले से मुक़र्रर नहीं होता. मैं बयाँ कर देना चाहता हूँ अपने एहसासों को और इस दिल की धडकनों के बंद होने से पहले मैं कहना चाहता हूँ कि -

"ऐ अज़ीज़-अज़-जान लड़की मेरे लिए तुम इस सदी की सबसे खूबसूरत रूह हो."


* अज़ीज़-अज़-जान = जान से प्यारी

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संभव है तुम्हें ये निरर्थक लगे

>> 20 November 2009

संभव है तुम्हें यह निरर्थक लगे
कि
शाम होते ही लौट आते हैं
अँधेरे काले खौफनाक साये

और तुम होते हो
अपने घरों में बेपरवाह
ये सोचते हुए
कि हम सुरक्षित हैं


जब सोचे जाते हैं
दुनिया को मनमाने ढंग से
चलाये जाने के लिए
प्रजातंत्र की चाशनी में लिपटे हुए
राजनीतिक हथकंडे

और तुम थिरकते हो मदहोश होकर
अपने महबूब की बाँहों में
किसी डिस्को या बार की रंगीनियों में
लगाते हुए कहकहे

जब फैंके जाते हैं
सुबह की रोशनी में
संसद के अन्दर
गांधीनुमा नोटों के बण्डल
और दिखाए जाते हैं तीखे तेवर
कि संसद पर हमला
हम कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे

तुम रिमोट का बेहतरीन इस्तेमाल करते हुए
बढ़ जाते हो अपने गंतत्व पर
जहाँ आधुनिक गालियों से भरा समाज
करता है तुम्हारा इंतजार

संभव है तुम्हें ये निरर्थक लगे
कि
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु
कभी इस देश का हिस्सा थे

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हम कृष्ण भी हैं - हम राम भी

>> 19 November 2009

हम समझदार हैं
और होशियार भी

हम बनकर चाचा, ताऊ
फूफा और मौसा
लूटते हैं, खसोटते हैं
अपने ही घरों की स्त्रियों को
और
फिर देते हैं, उन्हें
अपने घर की
इज्जत की दुहाई


हम रचाते हैं रास लीला
भोगते हैं सुन्दरता
और फिर
दूर खदेड़ देते हैं
अपने ही घरों की स्त्रियों को

हम कृष्ण भी हैं
हम राम भी

हम देते हैं भाषण
स्त्री शक्ति पर
और फिर भोगते हैं
उसके शरीर को
बंद किसी होटल के कमरे में

हम बेईमान भी हैं
हम शैतान भी

हम लगाकर घात
बैठते हैं
अँधेरे किसी कोने में
लूटने को
किसी स्त्री की अस्मत
और
रखते हैं बंद कुण्डी में
अपने घरों की इज्जत

हम शैतान हैं
और
बनते भगवान भी

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एक स्कूटर की आत्मकथा

>> 06 November 2009

'खड-खडर-खडर' नीचे से आवाज आना शुरू हो गयी जो कि जाहिर है कि मिश्रा जी के स्कूटर की थी. थोडी देर में वो आवाज अपनी जवानी पर आ गयी और मिश्रा जी ठीक वैसे ही स्कूटर का कान अमैठने लगे जैसा गाँव के मास्टर जी कक्षा में खड़े लड़के के कान इस एवज में अमैठते हैं कि उसने 'कै निम्मा अठारह' का जवाब नहीं दिया और शांत खड़ा खड़ा जमीन को ताकता या आसमान को क्योंकि ठीक सरकार की तरह स्कूल की कक्षा के ऊपर भी छत नहीं थी, तो वो छत को ना ताक कर आसमान को ताकता है.

हाँ तो मिश्रा जी स्कूटर का कान अमैठते हैं और उस भरी पूरी कॉलोनी को पता चल जाता है कि 5 बज गए. पिछले 20 बरस से रोज़ का यही क्रम था और यही समय इसीलिए कालोनी की दीवारों, कुत्तों और इंसानों को भी ठीक वैसे ही आदत पड़ गयी थी जैसे कि चुनाव के आते ही मोहल्ले के बढे-बूढों को पैर छुलवाने की आदत पड़ जाती है.

कई बार लोगों ने कहा कि ये स्कूटर बेच दो और नया कोई साधन जुगाड़ कर लो. पर मिश्रा जी ठीक वैसे ही उस स्कूटर का इस्तेमाल आँख, कान और नाक बंद करके करते जा रहे थे जैसे हमारे देश के नेता हर बार चुनाव के लिए वही पुराना भाषण और भाषण देने का तरीका इस्तेमाल करते आ रहे थे और देकर जीत जीत कर संसद और विधान सभाओं की शोभा बढा रहे थे. नेता भी खुश, उस भाषण को देने में और सुनने वाले भी खुश, उस भाषण को सुनने में. न नेताओं को नया भाषण लिखवाना पड़ता और ना ही जनता को नया भाषण होने की वजह से ध्यान लगाना पड़ता.

कॉलोनी में ही रहने वाली श्रीमती दुबे ने अपने लड़के को आवाज दी उठ जा चिंटू जा दूध ले आ. क्या मम्मी अभी समय ही क्या हुआ है. पाँच बज गए और कितने बजे उठेगा देख तो मिश्रा अंकल स्कूटर ले जा रहे हैं. उनके इस बात के कहने के बाद ना चिंटू ने पूंछा कि आपको कैसे पता कि पाँच बज गए और ना ही श्रीमती दुबे ने कहा कि उन्हें कैसे पता कि पाँच बज गए. सारी कॉलोनी और कॉलोनी वासियों को पूरे 20 बरस से पता था कि मिश्रा जी सुबह 5 बजे ही अपना स्कूटर निकाल कर दूध लेने जाते हैं और वहाँ से नीम के पेड़ से दातुन तोड़ कर लाते हैं. उनका दूध लाना इतना ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं था जितना कि नीम का दातुन लाना. ये कॉलोनी वाले भी जानते थे और वो दूध वाला भी कि मिश्रा जी उनके चबूतरे पर लगे नीम के पेड़ की वजह से यहाँ दूध लेने आते हैं.

उस रामदीन दूध वाले के पडोसी ठीक वैसे ही रामदीन से और उसके नीम के पेड़ से चिड़ते थे जैसे कि किसी नेता के किसी क्षेत्र से हर बार सांसद चुने जाने पर उसके विपक्षी नेता चिड़ते हैं. हर बार विपक्षी नेताओं की तरह जो कि उस क्षेत्र में जाकर हर बार चुनाव से पहले वोट के लिए गिडगिडाते हैं कि फलां नेता में क्या धरा है. हम उससे ज्यादा सुविधाएं देंगे, कम खायेंगे, बहुत विकास करेंगे, हर चौथे दिन अपने इस क्षेत्र में जीतने पर भी आयेंगे, दुःख दर्द सुनेंगे और उन्हें दूर करेंगे. रामदीन के पडोसी भी मिश्रा जी को बहकाते, फुसलाते और उनसे अनुनय विनय करते. लेकिन मिश्रा जी टस से मस नहीं होते. ना मिश्रा जी बदले पिछले 20 बरस से और ना ही उनका स्कूटर.

इन 20 बरसों में उस स्कूटर ने कई कारनामे किये थे. जिसमें 7 दुर्घटनाओं के केस थे. जिनमें कि या तो सामने वाला टूटता या फिर मिश्रा जी टूटते और अगर इन दोनों में से कुछ ना हो पाया तो स्कूटर टूटता. इसके साथ साथ इस मुएँ स्कूटर की वजह से उनकी धर्मपत्नी इन 20 बरसों में कई बार रूठ रूठ कर अपने मायके बैठ जाती. हालांकि ये स्कूटर उन्हीं की शादी में दहेज़ स्वरुप उनके पिताजी ने मिश्रा जी को दिया था.

बात ये नहीं थी कि मिश्रा जी को स्कूटर से ज्यादा प्यार था और धर्मपत्नी जी से कम बल्कि बात कुछ और ही थी. इसके पीछे बात ये थी कि कई बार मिश्रा जी अपनी धर्मपत्नी जी को अपने साथ ले जाते स्कूटर पर बिठाकर और कहीं रास्ते में भीड़ के आने पर धर्मपत्नी के अचानक स्कूटर से उतर जाने पर मिश्रा जी उन्हें वहीँ भूल से छोड़ आते. जब उन्हें पता चलता कि अरे धर्मपत्नी जी तो पीछे ही रह गयीं खड़ी हुईं कहीं 10 या 20 या 30 किलोमीटर. इधर मिश्रा जी इस मामले में भुलक्कड थे कि धर्मपत्नी जी पीछे बैठी हैं कि नहीं और उधर श्रीमती मिश्रा जी भी अपनी आदत की पक्की थीं कि कहीं जाम लगने की स्थिति में वो फ़ौरन उतरकर खड़ी हो जाती थीं. तो इस तरह कई बार वो रूठ जाती और अपने मायके चली जाती.

एक बार तो दोनों अपने मायके और ससुराल से वापस आ रहे थे कि बीच रास्ते में कहीं श्रीमती जी उतर गयीं और मिश्रा जी 20 किलोमीटर स्कूटर खींच लाये. तब श्रीमती जी भी नयी नयी थी और उनका गुस्सा भी नया नया. बस श्रीमती जी ने 20 किलोमीटर पीछे रह गए अपने मायके में फ़ोन लगाया कि मैं फलां जगह खड़ी हूँ मुझे ले जाइए. बस जब आगे के 20 किलोमीटर खड़े मिश्रा जी को पता चलता तो वो परेशान वापस दौड़ते और उनकी धर्मपत्नी जी मिलती उनके मायके. इस तरह से श्रीमती का रूठना 6 महीने से प्रारंभ होकर अब जाकर धीरे धीरे इतने सालों में शांत हो चला था. ठीक उसी तरह जैसे कि जनता ने आदत डाल ली है भ्रष्टाचार को सहने की, नेताओं के सही न होने की, पुलिस की घूसखोरी की और टीवी चैनलों में समाचार की जगह किसी अन्य कार्यक्रम की झलकियाँ देखने की.


इधर स्कूटर भी पिछले कुछ सालों से कई बार टूटा चुका था, बन चुका था और इस्तेमाल किया जा रहा था. ठीक वैसे ही जैसे हमारी सरकार टूटती है फिर कुछ पैसे खर्च करके बनती है और उसी तरह सुचारू रूप से चलती रहती है. कॉलोनी के लोग भी उस स्कूटर को झेलने के उसी तरह आदि हो गए थे जैसे हमारे देश की जनता टूटी फूटी सरकार को झेलने की आदत डाल लेती है.

भले ही पीठ पीछे कितनी ही बातें करे और अलग अलग समूहों में मिश्रा जी के टूटे फूटे स्कूटर की बुराइयां होती हों और हंसी उडाई जाती लेकिन सब फिर उसी तरह शांत पड़ जाते जैसे कि जनता हमारे देश के भ्रष्टाचार, पुलिस के रवैये, सरकार की दशा, महंगाई और बिजली पानी की समस्याओं के लिए आपस में गला फाड़ फाड़ कर चर्चाएं करते हैं और समूह से अलग होने पर अपने घर में बैठ टीवी देखती है, गाने सुनती है, सप्ताह के अंत में घूमने जाती है, अच्छा खाना खाती है और आराम से सो जाती है.

हर बार स्कूटर के ख़राब होने पर मिश्रा जी मैकेनिक के पास जाते और कोई न कोई बहाना बनाकर उसकी मरम्मत करवा कर उसे उसी तरह सुचारू रूप से चलाने लगते. ठीक वैसे ही जैसे कि हमारे नेतागण लाख बुराइयां होने पर भी हमारी सरकार के टूटने-बिखरने पर पैसा लगाकर, बातें बनाकर, लालच से, वादों से, दूर के सपने दिखा दिखा कर अपनी टूटी फूटी सरकार को या तो बचा ले जाते हैं या फिर से उसकी मरम्मत कर सुचारू रूप से चलाने लगते हैं.

कई बार पेट्रोल महंगा हुआ और कॉलोनी वासियों ने मिश्रा जी को हिदायत दी कि इसे बेच दो और नया खरीद लो काहे इसमें पैसे लगाते हो. ये तो सही एवरेज भी नहीं देता और परफॉर्मेंस की तो बात ही मत करो. मिश्रा जी भी मुंह में पान दबाकर टका सा जवाब देते हैं कि भैया हमें क्या बढ़ते हैं तो बढ़ने दो, हमारा पेट्रोल का खर्चा तो सरकारी खाते में जाता है. ठीक वैसे ही जैसे सरकार और उसके चलाने वालों की दावतों, मीटिंगों, और चाल चलन का खर्चा सरकारी खाते में जाता है.

तो मिश्रा जी का स्कूटर चला आ रहा है और चलता रहेगा जब तक जान में जान है. मिश्रा जी भी खुश, कॉलोनी वाले भी खुश कि सुबह 5 बजे का पता चल जाता है और कुत्ते भी खुश कि बेवजह भौंकना नहीं पड़ता.

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कि ये लोकतंत्र है

>> 02 November 2009

हम अंधे हैं
और बहरे भी

या हम देखना चाहते हैं
चंद कपडों में परोसी गयी
परदे पर नग्न स्त्री

और सुनना चाहते हैं
रेडियो पर पॉप संगीत
और अपनी सलामती की खबरें

हम इंतजार करते हैं
हमें मारने वालों के लिए
इन्साफ का

देखते हैं, सुनते हैं
और फिर भूल जाते हैं
लाल किले पर खड़े होकर
दिया जाने वाला भाषण

हमें बताया जाता है
बार बार
कि ये लोकतंत्र है

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