क्या इसी दुनिया का था वो ?

>> 12 March 2010

वो हम-सब से बहुत अलग था । बहुत अलग । शायद यह अलग होना ही उसे विशेष बनाता था । बचपन में जब सब गुड्डे-गुड़ियों के साथ खेला करते या उसके बाद क्रिकेट, गुल्ली-डंडा या खो-खों में रमे रहते तब वह एकांत में चुप सा बैठा रहता, ख़ामोशी का लबादा ओढ़े । उसकी जिंदगी में ख़ामोशी ने बहुत पहले ही दस्तक दे दी थी । उसे बोलना कम पसंद था और सुनने के लिये वो सबकी सुनता था । मुस्कुराते रहना उसकी चन्द आदतों में शुमार था और फिर हौले से खामोश रह जाना उसका अगला क्षण ।

एक रोज़ उस कमरे में सिगरेट के धुएँ के पीछे से उसने कहा था "आदमी कुत्ता होता है ।" उसकी भूख कभी नहीं मिटती । पहले एक औरत फिर दूसरी, फिर तीसरी और फिर इसी तरह वह अपने भूखेपन में सब कुछ कर गुजरता है । उसकी खमोश आवाज़ के साथ ही मुझे उसका आक्रोशित चेहरा सामने दिखा था । अक्सर अपनी माँ से फ़ोन पर बात करने के बाद मुझे जब तब उसका यह रूप दिखाई पड़ता था । कुछ भी हो मेरी नज़र में इस दुनिया में वह कम से कम कुत्ता नहीं था । जिस कुत्तेपन की वह अक्सर बात किया करता था । उससे वह कोसों दूर था । अपने जन्म के साथ ही उसने उसी माहौल में साँस ली थीं जहाँ एक आदमी कुत्ता होता है, बस सिर्फ एक कुत्ता ।

यह मैंने उसी से जाना था कि जब भी किसी शहर में वी.आई.पी. या किसी बड़े नेता का दौरा होता है तो वहाँ की हाई क्लास कॉल गर्ल बुक हो जाती हैं । उसने एक रोज़ कहा था कि उसका बाप भी इन्ही वी.आई.पी. या नेता में से एक है । ऐसे दम घोंटू माहौल में रहने के बावजूद वो किस कदर पढ़ पाया होगा और फिर हर क्लास में टॉपर हो जाना । कभी कभी उसका व्यक्तित्व मुझे सभी से जुदा लगता था ।

अपने बाप से बात ना करने के लिये वो मुझे फ़ोन उठाने के लिये कहता था । मैंने ना जाने कितनी बार सैकड़ों बहाने बनाये थे । मेरी नज़र में उन बीतते हुए हॉस्टल के दिनों में कभी उसने अपने बाप से बात नहीं की थी । उन बीतते हुए दिनों में याद रखने के लिये केवल यही खास बात नहीं थी ।

उन तमाम खास बातों में जो सबसे खास था वो था एक नाम "मेघा" । मेघा जो उसे चाहती थी और वो उसे लेकिन खुल कर इस बात को दोनों ने कभी स्वीकार नहीं किया । मुझे कभी उसमें "ईगो" नज़र नहीं आयी । लेकिन क्या था जो उन दोनों के मध्य अनकहा होते हुए भी कहा जान पड़ता था । शायद कोई शब्द या कोई बंधन । मालूम नहीं पड़ता था कि उन दोनों के मध्य सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है ।

जब कॉलेज के आखिरी दिनों में तमाम विदेशी कम्पनियाँ बहुत से लड़कों को सलेक्ट करके ले गयी थीं । तब अपने सलेक्शन के बावजूद उसने अपने देश में ही रहने की खातिर देश की ही कंपनी को चुना था । उन आखिरी दिनों में जो नहीं होना था वो भी हुआ ।

जब आखिरी के दिन उसने मेघा से अपने दिल की बात कही थी । तब मेघा ने प्रत्युत्तर में कहा था "ऐसा क्या खास है तुम्हारे पास जो मैं हाँ कहूँ ।" उसने कहा था "आई ऍम लोयल" । तब मेघा ने कुछ भी ना कहते हुए वह स्थान रिक्त कर दिया था । वह चली गयी थी और उसने अपने ही कॉलेज के उस लड़के को चुना था जिसने वेदेशी कंपनी के कदम से कदम मिलाये थे ।

उस रिक्त स्थान को वह कभी ना भर सका । कभी भी नहीं । वह उन बीतते दिनों के बाद ना जाने कहाँ गुम हो गया । एक-दो कंपनी तक तो उसका आभास होता रहा । गुपचुप-गुमसुम हौले-हौले वह ना जाने किस दुनिया में विलीन हो गया । उसका बहुत पता मालूम किया लेकिन उसकी ख़ामोशी ने कभी मुझे इस काबिल ना होने दिया कि उसे तोड़ पाता । बरसों बीत गये । ना जाने वो कहाँ होगा ।? किस राह पर होंगे उसके कदम और किस नगर में होगा उसका बसेरा ? बरसों से मैं खोज रहा हूँ उसे......उसका पता......उसका ठिकाना.....

21 comments:

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" 12 March 2010 at 16:28  

kuch log kavita ko gadya ke roop me likhte hain...aapne gadya ko kavya bana dala...achha laga

M VERMA 12 March 2010 at 17:29  

अनिल जी
आपकी लेख्ननी में साँस रोक देने का जादू है. बहुत सुन्दर लिखा है.

shikha varshney 12 March 2010 at 19:52  

अनिल जी ! आपकी कहानियों में मुझे हमेशा एक कविता दिखाई देती है..और शायद इसीलिए एक ही सांस में पढ़ जाती हूँ पूरी कहानी.बहुत अच्छा लगा पढना

Anu...:) 12 March 2010 at 20:20  

Wow! Very nice expression and description!:)

रानीविशाल 12 March 2010 at 21:11  

Bahut acchi kahani likhi hai aapane...badhai!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/

मनोज कुमार 12 March 2010 at 21:53  

आपकी लेखनी अपनी आत्मीयता से पाठक को आकृष्ट कर लेती है।

मनोज कुमार 13 March 2010 at 00:27  

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे 13.03.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/

प्रवीण पाण्डेय 13 March 2010 at 07:56  

अव्यक्त मनोभावों के अन्दर कितना कोलाहल छिपा रहता है, कितनी गहराई और कितनी वेदना । ज्ञात कर पाना कठिन है ।

tum to fir ek haqeeqat ho......... 13 March 2010 at 12:36  

hamesha ki tarah bahut alag abhivyakti....

rashmi ravija 13 March 2010 at 16:08  

बहुत ही सुन्दर शैली में लिखी है...बिलकुल काव्यात्मक

vandana gupta 13 March 2010 at 18:52  

yahi to khasiyat hai aapki lekhni ki ki insaan saans roke padhne komajboor ho jata hai jab tak ant nhi aa jata........behad umda .

Ashish (Ashu) 13 March 2010 at 23:17  

भाई..क्या कहू..क्या ना कहू कुछ समझ नही पा रहा हू...आखिर इत्ने दिनो बाद इतनी खुशी जो आपके ब्लाग पर आने के बाद मिली हॆ उसे कॆसे बताउ..........

Aparna Mishra 14 March 2010 at 11:41  

nice 1 anil....... you hv such a tremendous magic of words to express ur ideas

सुशील छौक्कर 14 March 2010 at 18:19  

कुछ ऐसा ही मैं भी कई दिनों से बुन रहा हूँ पर देखिए बुनाई पूरी ही नही हो अभी तक और आप हैं कि ........। सुन्दर।

Anonymous,  14 March 2010 at 22:50  

ye post padhkar aisa laga aas pass bahut ho raha hai aisa. itni acchi tarah se likha hai ki padhte padhte laga ki sab kuch aankho ke samne chal raha hai.

अनिल कान्त 16 March 2010 at 11:39  

आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया !

निर्मला कपिला 16 March 2010 at 19:58  

वेदना मे आपकी लेखनी इतना अच्छा लिख जाती है कि पढ कर हैरत होती है आपका यही अंदाज़ हमेशा अच्छा लगता है। शुभकामनायें

Neha 17 March 2010 at 16:47  

bhartiya navvarsh kii shubhkamnayen....bahut hi umda post...

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