ओ रे मनवा तू तो बावरा है
>> 21 July 2010
कभी-कभी मन इतना सूना हो जाता है कि खीझ, प्रसन्नता, अप्रसन्नता, अकुलाहट, क्रोध, भय, सुख और दुःख जैसी किसी भी स्थिति में कोई फर्क ही महसूस नहीं होता । मन करता है कि यहाँ से निकल जाऊँ । कहाँ ? यह कुछ भी जाने बिना । किन्तु दिमाग आड़े आ जाता है और समझाता है कि ऐ मन, बावरा हो गया है क्या ? कितनी घडी समझाया कि लिमिट में रहा कर । ज्यादा हवा में ना उड़ा कर । लेकिन ये मन उड़ने को करता है । किधर को ? कहाँ को ? नहीं जानता ......
बचपन में दिमाग यूँ हावी नहीं होता था । बचपन में यूँ तो कई बेवकूफियाँ की होंगी लेकिन उन सब में जो सबसे ज्यादा याद है वो यह कि जब भी मन में कोई सवाल आता या जो बात किसी से ना कह पाने की स्थिति में होता । तब मैं चिट्ठियाँ लिखा करता और सोचता कि ऊपर वाला कोई जवाब जरुर भेजेगा । कई बरस बीत जाने के बाद ज्ञात हुआ कि चिट्ठी पर नाम पता भी लिखा जाता है और अपनी बेवकूफी पर उस पल गुस्सा आया कि तभी मैं कहूँ कि जवाब क्यों नहीं आते । एक रोज़ डाक घर के अंकल ने पकड़ लेने पर अच्छी तरह समझाया कि भगवान का पता तो उन्हें भी नहीं पता तो फिर वो चिट्ठी कैसी पहुंचाएंगे । फिर दोबारा ऐसा ना करने की हिदायत देते हुए उन्होंने मुझे घर को रवाना कर दिया । तब धीरे धीरे उन चिट्ठियों की शक्ल मेरी डायरी के पन्नो ने ले ली । जिन्हें मैं अक्सर बारिश के आने पर नाव बनाकर पानी में बहा देता । मेरे प्रश्नों, अरमानों, शिकायतों और सपनों की नाव .....
तब जबकि दिल 14 बरस का होने का आया और उस अपनी हमउम्र के लिए आकर्षित हो गया । तब मैंने और मेरे दिल ने उसे प्यार का नाम दिया था । शायद मेरा पहला प्यार ....शायद नहीं यकीनन ही होगा । खैर अब सोचता हूँ तो लगता है कि तब मैं ये भी नहीं जानता था कि आकर्षण होता क्या है । मुझे अब भी याद है कि उन दिनों आयी 'दिल तो पागल है' फिल्म ने मेरे दिल को और अधिक पागल करने में पूरा साथ दिया । अगले दो बरस उसी एकतरफा प्यार में निकाल देने पर भी दिल ख़ुशी से झूम उठता था । अब सोचता हूँ तो सचमुच उस उम्र में हम लड़के कितने बच्चे होते हैं और वहीँ लडकियां कितनी समझदार होने लग जाती हैं .....
उन दिनों के बाद से जब कभी मन सूना सा हो जाता था तो अपने शहर की उस तमाम अन्जान गलियों में चला जाता । ना तो जहां मुझे कोई जानता और ना ही जानना चाहता । उन सबके बावजूद वे गलियों मेरे लिए अन्जान ही बनी रहीं । उन अन्जान गलियों में बेवजह घूम लेने पर मुझे अकथनीय सुख मिलता । कभी-कभी उस सुख के लिए मैं आज भी तड़प उठता हूँ । लौट आने पर जब माँ पूंछती कि कहाँ गया था तो बहाना बना देता कि फलां दोस्त के पास गया था । जबकि मेरे दोस्तों में सिर्फ गिनती के दो या तीन ही लोग शामिल थे । जो आज भी मुझे दोस्त बनाये हुए हैं । क्योंकि मेरा उन्हें दोस्त बनाये रहने से ज्यादा उनका मुझे दोस्त बनाये रहना ज्यादा सुकून देता है ...
उम्र गुजरी तो फिल्मों से कब दोस्ती हो गयी पता ही नहीं चला । ऐसी अनगिनत फिल्में जो कि उस सूने मन की साथी हैं, आज भी जहन में कायम हैं । सच तो यही है कि फिल्मों ने मेरा बहुत साथ दिया । मुझे जिंदा बनाये रखा । मुझे याद है कि उस समय में तमाम जवान दिल जो कि हसीनाओं पर मर मिटने के लिए उतावले रहते थे । उन पलों में फिल्में मेरी माशूका बन गयी थीं ....
आज इस उम्र पर जबकि सूना मन कहता है कि चल कहीं दूर चले चलें । बिना सोचे-बिना समझे किसी अन्जान गली, उस बीती उम्र के साथ खोयी हुई महबूबा के शहर, उन सिनेमा घरों की पिछली सीटों पर, किसी कोने में लगायी गयी पुरानी किताबों की दुकान पर या बिना टिकट लिये हुए रेलगाड़ी में चढ़ किसी अपरिचित से स्टेशन को पहुँच, उतर कर उसके सीटी बज जाने पर भी खामखाँ की परवाह किये बगैर वहीँ खाली प्लेटफोर्म पर बैठे रहकर चने चबाते हुए बेफिक्र पैर पसार कुर्सी पर लेट जाने को जी चाहता है ....
आज फिर से बिना नाम-पते वाली चिट्ठी डाकघर जाकर उस लाल बक्से में डाल आने को जी चाहता है ....
14 comments:
एक तो आज सुबह से ही मन कुछ ऐसा ही हो रहा था... कन्फ्यूज़्ड टाइप... पता नहीं क्या चाहता है... ऊपर से आपकी पोस्ट ने और सेन्टिया दिया... सोच रहे हैं एक बिना नाम-पते वाली चिट्ठी हम भी उस लाल बक्से में डाल ही आयें आज :)
padh rahi hun aur mann bawre ko sun bhi rahi hun...chitthi daal hi aaiye
kya khoob likhte hain aap
सच ये मन बावरा ही तो होता है………………अन्जान गलियों मे भटक कर ही खुश होता है……………
मन वाकई बावरा है .....बहुत पसंद आया यह
bahut pasand aaya baawra manva...
मन के अनकहे संवादों की व्यथा कथा।
मन कैसे कैसे संवाद करता है....भवों को खूबसूरती से कलमबद्ध किया है
ओ रे मनवा तू तो बावरा है
अनिल भाई कुछ दिनों के बाद आना हुआ..मगर खूब आना हुआ..आपकी पोस्ट की संगत मे हम भी शहर की उन अंजान तंग गलियों मे भटकते रहे..और उन चीजों को खोजते रहे हो हर बचपन मे सबसे ’कॉमन’ होने के बावजूद सबसे निजी सी लगती हैं..गोया कि दिल भी किसी बेपता चिट्ठी सा दुनिया भर मे भटक कर अपने दड़बे मे वापस आ जाता है..
अपने आप से संवाद करना .... ग़ज़ब का लिखा है आपने अनिल जी ....
ek geet yaad aa gaya..banwara man dekhne chala ek sapna'
aapki kalam bhi classic hai aaj :)
Padhte,padhte man besaakhta bachpanke safar pe nikal gaya!Dar asal,netpe aaneke pahlehi yah safar jane kyon jaari ho gaya tha...raat ke 1 baje uth us bareme likhne pahuchi to yahan ye safarnama dikh gaya!
Bahut badhiya sansmaran...
मन को बावरा ही होना चहिये अब तो.......
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