वो एक लड़की !!
>> 14 July 2010
कुछ धुंधले अक्स स्मृतियों में ऐसे जमा हो जाते हैं जैसे वजूद का एक अहम् हिस्सा हो गये हों । जिनका होना और ना होना उतना मायने नहीं रखता जितना कि उनका स्मृतियों में बने रहना । तमाम कोशिशों के बावजूद वो वजूद से अलग नहीं होते ।
उन दिनों में जबकि ना ही तो मोबाइल थे और ना ही इंटरनेट का प्रचलन । चाहने वालों के लिये ऐसा कुछ भी आधुनिक नहीं था जिससे वे चल रहे वक़्त को बदला हुआ आधुनिक समय कहते । सब कुछ तो वैसा ही था उनके लिये । वही चाहत जताने के खामोश फ़साने, खामोश निगाहें और आँखों ही आँखों में पढ़ ली जाने वाली प्रेम की भाषा । अंततः कुछ भी ना जता पा सकने पर लिखे जाने वाले वे गुपचुप प्रेम सन्देश जिन्हें साधारण भाषा में ख़त और चाहने वालों की भाषा में प्रेम पत्र कहते । जो कि कभी डाकिया के हाथ में नहीं उलझता था । उसके भी अपने तरीके हुआ करते थे । जो कि भेजने वाले और पाने वाले ही जान पाते ।
वो कॉलेज में इंग्लिश पढ़ा करती थी और मैं हिंदी । एक पल को तो लगता था कि बीच में एक लम्बी खाई है जिसे हिंदी और अंग्रेजी ने मिलकर बनाया है । वो मुझे अक्सर लाइब्रेरी में पढ़ते हुए मिला करती । शुरू में लगता कि यह महज इत्तेफ़ाक है कि हम टकरा जाते हैं लेकिन फिर ना जाने ऐसा क्या हुआ कि हम अक्सर एक ही समय पर मिल जाया करते । वही समय और किताबों की लम्बी कतार के आखिरी छोर पर खड़ी वो अंग्रेजी के किसी नॉवेल में आँखें गढ़ाए मिलती । अक्सर वह मेरी सामने की कुर्सी पर ना बैठकर किसी आखिरी छोर की कुर्सी पर बैठती । कई बार मैंने उसकी आँखों की चोरी को पकड़ा । जो कि अक्सर एकांत मैं बैठे हुए मुझे निहारा करती थीं । जो उसने कभी ना कहा उसकी आँखें अक्सर कहती रहती । फिर वक़्त यूँ ही गुजरता गया । हमारे बीच सब कुछ अनकहा होते हुए भी ऐसा लगता कि जैसे कि हम एक दूसरे को कितना जानते हैं ।
उस एक रोज़ जब मैंने उससे किताबों की कतार के आखिरी छोर पर खड़े हुए उसके हाथ में लिये हुए नॉवेल के बारे में पूंछा था । तब उसने कहा था 'जी' । मैं उसके उस 'जी' पर मुस्कुरा भर रहा गया था । शायद उसने मुझे ठीक से सुना नहीं था । वो कहीं खोयी हुई थी । जैसी कि वह अक्सर खो जाया करती थी अपनी ही दुनिया में । मैं जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया था । तब उस दफा वो मेरे सामने की कुर्सी पर बैठी थी और बोली थी "आप कुछ पूँछ रहे थे ?" .....मैंने मुंह से "चक्क" की आवाज़ निकालते हुए ना में सर को हिलाया । तभी 'शश्श्श्स ....' की आवाज़ सुनाई दी थी । कोई हमें शांत रहने के लिये कह रहा था । हमारे दरमियाँ एक लम्बी चुप्पी आ गयी थी ।
कुछ रोज़ के बाद के सालाना जलसे में उसका पहली बार नाम जाना । हालांकि उसका नाम जानना बहुत आसान था लेकिन कभी मेरे मन ने सोचा ही नहीं कि उसका नाम क्या होगा । जब कविता सुनाने के लिये उसका नाम पुकारा जा रहा था । तब उसका चेहरा सामने पाकर पता चला कि 'अनुराधा' वही है जिसकी कवितायें कॉलेज की पत्रिका में छपती रहती हैं । जब अनुराग कहकर मुझे वहाँ बुलाया गया तब शायद उसको मेरा नाम पता चला हो या शायद उसे पहले से मालूम हो । क्या पता मेरे मन के विपरीत उसके मन ने ये जानना चाहा हो कि मेरा नाम क्या है । उस रोज़ के बाद से वह कब अनुराधा से अनु हो गयी पता ही नहीं चला ।
सालाना जलसे के बाद से शायद हम एक दूसरे से अच्छी तरह परिचित हो चले थे । तब कई पहलुओं पर हमारी बात हुई थी । वो बहुत कम बोलती थी । उसे सुनना ज्यादा पसंद था । अक्सर वह चुप्पी जो हम दोनों के दरमियाँ आ खड़ी होती । वह बहुत लम्बे समय तक वक़्त को पीछे धकेल कर हमें आगे ले जाती । कहाँ ? नहीं पता लेकिन जहाँ भी ले जाती थी, वहाँ वो चुप्पी नहीं होती थी । ना जाने यह कैसा लगाव था कि अनकहे तरीके से सब कुछ कहा सा लगता था । कभी कभी मालूम होता कि हम ना जाने कितने बरसों से एक दूजे को जानते हैं । एक दूजे से किसी डोर से बंधे हैं । उन दिनों ख़ामोशी की गहराई ही शायद लगाव का पैमाना थी ।
कॉलेज खत्म हो चले थे और मुझे भविष्य की चिंता और नई नौकरी के साथ नये शहर जाना था । उन गुजरते हुए दिनों में उसने कभी कुछ ना बोला । कभी कभी लगता कि सब कुछ कह देना चाहिए । लेकिन फिर यह सोच रुक जाता कि क्या कहना चाहिए ? कि "अनु मैं जा रहा हूँ एक अनिश्चित सफ़र पर और क्या तुम मेरा इंतज़ार करोगी " या फिर "क्या तुम्हारा और मेरा भविष्य एक साथ जुड़ सकता है ?" या फिर "क्या तुम मुझ से प्रेम करती हो ?" .....नहीं यह सवाल गलत था । जबकि सब जानते हुए कि वह मुझे चाहती है । या शायद उस एक पल को मुझे वे सभी प्रश्न कर लेने चाहिए थे ।
शहर छूटा बिना कुछ कहे और बिना कुछ सुने । पहले दिन बीते फिर महीने और फिर एक ख़त मिला जो कि पिछले तीन पतों के कटे होने के बाद मेरे इस चौथे बदले हुए पते पर रीडायरेक्ट होकर पहुंचा था । कुछ चन्द पंक्तियाँ थीं जो आज भी वजूद के लिबास पर उभरी हुई हैं ....
"दिल को समझाया बहुत
न ले नाम मोहब्बत का जालिम
कि
तूने बनाया था जिसको अपना खुदा
वो तो इंसान निकला"
जिनके ना तो आगे कोई नाम था और ना ही पीछे । पिछले कई कटे पतों से साफ़ जाहिर था कि ख़त आने में बहुत देर हुई है । समझने में देर न लगी कि यह खत किसी और का नहीं अनु का ही है । उस एक पल ने बीते कई पलों को सामने ला खड़ा कर दिया और जब घर पहुंचा तो मालूम हुआ कि उसकी शादी अभी दो दिन पहले ही हुई है । उसने मेरा रास्ता देखा होगा .....कि शायद मैं उसका खुदा निकलूं ।
दिन बीते फिर महीने और फिर बरस बीतते चले गये । शहर बदले, घर बदले और न जाने क्या क्या बदल गया लेकिन आज भी वे धुंधले अक्स स्मृतियों में उलझे हुए हैं । वजूद के साथ लिपटी एक अधूरी चाहत.... "काश कि मैं उसका खुदा रह पाता ......"
18 comments:
बहुत हसीन है यह चाहत।
अनिल भाई, इस शानदार अभिव्यक्ति के लिए दाद देने को जी चाहता है।
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पॉल बाबा का रहस्य।
आपकी प्रोफाइल कमेंट खा रही है?.
उफ़्……………पीडा का अनोखा चित्रण्………………कुछ दर्द अजीब होते हैं।
गज़ब....बस, पढ़ते चले गये.
Adhoori chahat kaa neetant sundar kathy... padhte hue,ek pal bhi rukne ka man nahi hua...gazab kar diya aapne!
पता नहीं किसको पहले खुदा बनना था? कोई क्यों नहीं साधिकार बोल पाता है हृदय की धड़कन, क्यों भिक्षार्थी सा बन त्यक्तमना सा जीवन बिताता है कोई?
Again gem of your collection !
उसने मेरा रास्ता देखा होगा .....कि शायद मैं उसका खुदा निकलूं ।
बहुत सुन्दर और स्वाभाविक सी प्रेमकथा.
मन को छू लेने वाली कहानी....बहुत अच्छी लगी
इतने दिन कहा थे? पहले ये तो बताईये...आप को नही मालुम आप की कहानियो के बगॆर क्या हाल रहता हॆ,,,,
सही पोस्ट लगी..
काश कि ये पीड़ा न होती ?
दिल का कोई खाली कोना अचानक से और खाली हो गया... बहुत बार-बार हम ना कह पाने का दंश झेलते हैं और हम से कहीं ज्यादा कोई और ये पीड़ा सहता है...
उदास कर देने वाली कहानी है... बहुत उदास.
दिल को छू लिया कहानी ने ..!
हमेशा की तरह एक टक पढ़ता गया ..... कमाल का चत्र खैंचते हैं आप अनिल जी ....
alag he dard hai jo dil ke behad karib sa laga....pata he nahi chala ke kahani kb khatm hui....
aisi rachnaayen bahut kuch sochne ko chod jati hai..kuch khoya sa jiski kabhi kabhi hi yaad aati hai..superb anil ji!
Achcha hua jo khuda nahi nikle....kahaniya aisi hi banti hain...sabkuch straight ho koi curve na ho to zindgi nahi aati
हाँ शायद .....इसी का नाम जिंदगी ....
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