डायरी 23.08.2011
>> 24 August 2011
-> पंक्तिबद्ध खड़े सुस्ताते हुए ये पेड़ ऐसे प्रतीत होते हैं मानो दिन भर के थके मांदे हों और अब डूबती शाम को स्वंय को हल्का कर लेना चाहते हों. निश्चय ही क्या उन्हें थकान का अनुभव नहीं होता होगा ? जीवन तो उन में भी है. और हम जो सांस ले रहे हैं वह उनकी ही तो देन है. वे केवल देने के लिए बने हैं.
और हम ?
क्या केवल इस पृथ्वी को भोगने के लिए ही आये हैं.
मैं जब इन पर बारिश की बूंदों को गिरते हुए देखता हूँ तो उन पत्तियों पर रखी मोती सी बूंदों को छू लेने के लिए आतुर हो जाता हूँ. उन्हें छूकर शरीर में एक सुखद लहर दौड़ जाती है. आत्मिक सुख की अनुभूति शायद इसे ही कहते हों.
-> लिखने और ना लिख पाने के मध्य मानसिक द्वन्द चलता ही रहता है. फिर यह केवल मेरे अपने स्वंय के मन का ही सत्य तो नहीं. मेरी जो रचनात्मक जरूरतें हैं, उनका दुनियावी जरूरतों से सामंजस्य स्थापित कर पाना न केवल आवश्यक है बल्कि जीवनगत सच्चाई है.
मेरे अपने होने में और उसका शुद्ध बने रहने के बीच बस केवल एक फाँक है. इस पार से उस पार होने में कितना कुछ बदल जाता है. और बदलने के लिए तैयार रहता है. परिवर्तन जीवन के रहस्यों में से एक कटु सत्य है. मैं केवल अपने होने को बचाए रखना चाहता हूँ. बुद्धिशीलता में परिवर्तन आवश्यक हैं.
->प्रेम जिस पर ना जाने कितना लिखा गया है और कितना लिखा जाना शेष है. हर नई पीढ़ी ने इसे अपने शब्द दिए हैं. और अपने एहसासों को उन में पिरोया है. फिर भी जो लिखता है वह जीवन पर्यंत यही महसूसता है कि इस से सरल कोई शब्द नहीं किन्तु वह अपने जिन कौमार्य एहसासों को बयान करना चाहता था वह अभी भी कहना शेष है.
और वह शेष बना ही रहता है.
मैं जो प्रेम के अबाध सागर में डूबता, तैरता और उतराता रहता हूँ. आज उसी शेष के सिरे पर खड़ा हूँ. इस अपरिभाषित प्रेम के इस शेष सिरे को कितना आगे ले जा सकूँगा. मैं प्रेम में हूँ या प्रेम मुझ में. यह उलझ गया है.
-> चारों ओर काले बादल छाये हुए हैं. रह रहकर ठंडी हवा चलती है तो पेड़ों की पत्तियां हिलने लगती हैं. एक पल को लगता है कि वे सामूहिक नृत्यगान कर रहे हैं. फिर हवा का एक झोंका गालों को छू जाता है. स्नायुओं में झुरझुरी दौड़ जाती है. फिर बादल गरजता है, एकाएक बिजली चमक उठती है.
बारिश की बूँदें अपनी लय में गिरती ही जाती हैं. ऐसा लगता है मानों प्रकृति आज उत्सव मना रही है और मैं वह मूक दर्शक हूँ जो केवल उसका आनंद ले सकता है. मैं इस सृष्टि की रागात्मक प्रवृत्ति से भाव विभोर हूँ.
3 comments:
Bahut sundar wichardhara bahtee huee mahsoos huee.
क्या कहूँ …………बस महसूस रही हूँ।
प्रकृति के भिन्न तत्व अपने रंग में सबको मन्त्रमुग्ध करते हैं।
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