डायरी 28.08.2011
>> 29 August 2011
निपट सूनी दोपहर के बाद जब यह डूबती शाम आती है तब मन में रिक्तता का और भी अधिक आभास होता है. दूर पेड़ों के झुरमुट से पंक्षी एक एक कर निकल उड़ते हैं और धीमे धीमे एक समूह बना लेते हैं. ना जाने किन स्थानों पर उड़ कर जाया करते हैं. निश्चय ही उनके बनाये अपने घर होते होंगे. मेरा ना जाने क्यों उस सूने एकांत कमरे में लौटने का मन नहीं होता. मैं चाहता हूँ एक घर जिसे अपना घर कह सकूँ. जहाँ प्रेम हो, रूठना हो, मनाना हो, इंतजार करती हुई साथी हो जो मेरे देर से पहुँचने पर मुझसे झगडे. फिर मैं उसे अपना प्यार जताकर मनाऊँ.
वह जब ऑटो से उतरती है और फिर उसकी निगाहें मुझे तलाशने लगती हैं. तब उस एक पल को मैं भूल जाता हूँ कि अभी जो इस एक पल से पहले में यहाँ खड़ा था वह मेरा अपना ही एक सत्य था. जब हर ऑटो, हर वैन में मेरी नज़रें भीतर प्रवेश कर जाती थीं और मैं हर उस यात्री के पड़ोस में झांकता था जहाँ वह मुझे बैठी नहीं मिलती थी. हर एक नए पल में घडी की सुइयों का टिकटिकाना महसूसता था. और लगता था कि आज यह मुई इतनी सुस्त क्यों चल रही है. यह जानते हुए भी कि अभी उसके आने में देर है. मैं स्वंय को सड़क पर भागती-दौड़ती गाड़ियों की कतारों में उलझा लेता था.
इन दिनों ज़बान को एक नया रोग लग गया है. मुई दिमाग का साथ देना कभी कभी छोड़ देती है. लम्बे समय तक यदि किसी से फोन पर बात करता रहूँ तो इसके फिसलने के खतरे बढ़ जाते हैं. जब यह आभास दिल को अधिक होने लगता है कि यह अपनी लय छोड़ चुकी है तब वार्तालाप को विराम देने का मन हो आता है. नहीं तो कब किसी के सामने यह प्रेम प्रदर्शन करने लग जाए इसका अंदाजा लगाना मुमकिन नहीं. आज ही सुबह से शाम तलक दो बन्दों से "आई लव यू" कहते कहते बचा हूँ. कहीं किसी रोज़ इसका यह स्वाभाव मेरे सिर के लिए आफत मोल ना ले बैठे.
भूगोल ने मेरे संसार में उथल पुथल मचा दी. शिशुत्व से अब तलक इस विषय में मेरी कभी दिलचस्पी नहीं रही. हमारा सदैव छत्तीस का आंकड़ा रहा. और अब इतने बरसों बाद उसने अपने पुराने बही खाते खोल लिए हैं. और कह रहा है "बच्चू जिंदगी कोई आसान शह नहीं". यह मेरा अपना एक निजी सत्य है कि मुझे यदि कहीं खड़ा कर दिया जाए और पूँछा जाए कि पूरब किधर है और पश्चिम किधर. तो मैं खुद में ही भटक जाऊं. और आज वही पूरब-पश्चिम मुझे नाकों चने चबा रहे हैं. वाह रे भूगोल तेरी लीला अपरम्पार है. मुझे बख्श दे मेरे भाई. पुरानी बातों पर मिट्टी डाल.
6 comments:
यही है ज़िन्दगी।
Bahut sundar likhate hain aap!
कई बार लगता है कि जीभ दिमाग पकड़ कर क्यों बैठी है।
"आज ही सुबह से शाम तलक दो बन्दों से "आई लव यू" कहते कहते बचा हूँ. कहीं किसी रोज़ इसका यह स्वाभाव मेरे सिर के लिए आफत मोल ना ले बैठे."
क्या बात है अनिलकान्त जी! ऐसा ही होता है, एकदम ऐसा ही :) :)
:)
Arse baad aaj fir se padha.. utna hi asardaar h sab :)
very nice
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