हथेलियों में फूलों सी ताजगी, पवित्र प्रेम की नदी
>> 29 August 2011
-> कई विचार जुगनुओं की तरह जगमगाते हैं और फिर बुझ जाते हैं. मैं उन्हें पकड़ने के कई प्रयत्न करता हूँ. इन तमाम जुगनुओं में कभी कोई जुगनू हाथ आया तो आया. नहीं तो यह खेल चलता ही रहता है. सुबह के उजाले में जब यही जुगनू तितली बन जाते हैं तो कितने लुभावने हो जाते हैं. मैं अपनी हथेलियों को पसार देता हूँ किन्तु तब भी हर तितली कहाँ मेरी हथेली पर आकर बैठती है. या तो रात का अँधेरा ज्यादा लम्बा हो जाए तो मैं जुगनुओं को पकड़ सकूँ या मेरी हथेलियों में वह फूलों सी ताजगी आ जाए कि हर तितली उस पर आ बैठे.
-> ना जाने क्यों अपने गले में तौक लगाये जिंदगी घंटों के बावस्ते गुजरने से मन दूर भागता है. इस स्वछन्द मन की अभिलाषाओं की उड़ान उड़ना चाहता हूँ. मन माफिक क्रियाकलाप करने से जीवन के आर्थिक और सामजिक उद्देश्यों की पूर्ती हो जाए तो कितना अच्छा हो. अपने मन की अभिलाषाओं के पूर्ण संसार में तसल्ली की साँस लेना चाहता हूँ. मेरी जो रचनात्मक एवं भावनात्मक नदियाँ हैं, उन्हें में लबालब बहते हुए देखना चाहता हूँ. इतना कि वे कम से कम मेरी अपनी बंज़र जमीन में फूल खिला सकें.
-> मैं जानता हूँ कि प्रेम में यह रेतीले रेगिस्तान भी आते हैं और उनका आना तय है. जो थकाने और दिशा भ्रम के लिये बने होते हैं. कई कई बार वे हमें लू के थपेड़े देते हैं, ज़बान सुखा देते हैं और फिर पानी की बूंदों का धोखा देते हैं. मेरे मन की श्रृद्धा मुझे एक पल के लिये भी विचलित नहीं होने देती. मेरी सबसे बड़ी प्यास प्रेम में मिलने वाले आँसुओं की है, जो हमारे मिलने पर ख़ुशी से छलक उठेंगे. यह रेगिस्तान चाहे कितना भी लम्बा हो, मैं इसे पार करूँगा और अपने पवित्र प्रेम की नदी को हासिल करके रहूँगा.
-> कौन सही है, कौन गलत है. इन प्रश्नों के उत्तर हम कब तक माँगते रहेंगे. हम आखिर स्वंय से कब तलक धूप छाँव का खेल खेलते रह सकेंगे. हम जिस दुनिया में रहते हैं उसके सापेक्ष जरुरी तो नहीं कि हमें हमारे उत्तर मन मुताबिक़ मिलें. क्या यह मुनासिब नहीं कि हम उस बाहरी संसार और उसके लोगों से उम्मीदें करना छोड़ दें. आवश्यक तो नहीं कि हर कोई उन प्रश्नों के संसार में प्रवेश करे, उसे जिए और तब आप जिन सन्दर्भों में उनके उत्तर चाहते हैं, उनके उत्तर दे.
-> हमारे अपने अनुभवों के संसार में केवल हम स्वंय जीते हैं. उस संसार के रचयिता हम स्वंय होते हैं. हम लाख चाहें भी तो किसी अन्य को अपने उस संसार की ऊष्मा से परिचित नहीं करा सकते. उसके दुःख, पीड़ा, ख़ुशी, भावनाएं केवल हमारे अपने लिए होती हैं. दूसरों के लिए वह एक अलग संसार है. वह उसके बारे में जान सकता है, पढ़ सकता है, सुन सकता है किन्तु उसे महसूस नहीं कर सकता. ठीक वैसे ही जैसे बच्चे पढ़ा करते हैं किताबों में किसी अन्य ब्रह्माण्ड को.
-> आज इंसान बने रहने की शर्तें दुनिया ने जितनी महँगी कर दी हैं. वह निश्चय ही इंसानियत को दुर्लभ कारकों में शामिल कर देगा. कारक जो दुनिया में शांति और सौम्यता बनाये रखते हैं. इस पूरे बदलते परिदृश्य में मनुष्यता पर गहरे संकट छाते जा रहे हैं. मेरे वे सभ्य दोस्त जिनके कारण मनुष्यता कायम है. उनके अपने ही घरों में अशांति, दुःख, पीड़ा ने प्रवेश पा लिया है. कितना अच्छा होता कि अपने इंसान बने रहने के साथ साथ हम दूसरों की इंसानियत का कुछ हिस्सा भी बचा कर रख पाते.
5 comments:
anil ji aapki post ne to dil ko chhu liyaa .....akhtar khan akela kota rajsthan
कौन सही है, कौन गलत है. इन प्रश्नों के उत्तर हम कब तक माँगते रहेंगे. हम आखिर स्वंय से कब तलक धूप छाँव का खेल खेलते रह सकेंगे. हम जिस दुनिया में रहते हैं उसके सापेक्ष जरुरी तो नहीं कि हमें हमारे उत्तर मन मुताबिक़ मिलें. क्या यह मुनासिब नहीं कि हम उस बाहरी संसार और उसके लोगों से उम्मीदें करना छोड़ दें. आवश्यक तो नहीं कि हर कोई उन प्रश्नों के संसार में प्रवेश करे, उसे जिए और तब आप जिन सन्दर्भों में उनके उत्तर चाहते हैं, उनके उत्तर दे.
यूँ तो पूरी पोस्ट लाजवाब है मगर ये तो जीवन का सत्य कह दिया।
लाजवाब पोस्ट ........बहुत बढ़िया
अन्ततः तो आप स्वयं में ही जीते हैं, अनुभव आपसे ही सम्बद्ध रहते हैं।
अनिल भाई, यह इंसानियत ही तो नहीं बच रही कहीं अब..
------
ये रंगीन चित्रावलियाँ।
कसौटी पर शिखा वार्ष्णेय..
Post a Comment