हॉस्टल का पहला दिन -- अरे वो तो सरदार का रूम है !

>> 14 January 2009

घर से माँ ने अपने पूरे लाड प्यार के साथ विदा कर दिया कि हमारा बेटा दूर जा रहा है MCA करने । अब दूर कहीं हमारे घर से उत्तर प्रदेश का सुल्तानपुर जिला था । जहाँ कमला नेहरू इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी इंजीनियरिंग कॉलेज (Kamla Nehru Institute of Technology, Sultanpur) था । भाग्यवश हमें प्रवेश परीक्षा के माध्यम से वहाँ की सीट मिली थी । खुश थे कि चलो सरकारी और माना हुआ इंजीनियरिंग कॉलेज मिला है ।

हम रेलगाडी से वहाँ पहुँच गए । अब जब कॉलेज सरकारी है तो हॉस्टल भी तो सरकारी होगा ना । बताया गया कि हॉस्टल में कमरों की कमी है और छात्र ज्यादा । अतः तीन छात्रों के कमरे में पाँच छात्रों को रखा गया । मैंने भी हॉस्टल के वार्डेन साहब से जाकर अपने कमरे का बंदोबस्त करा लिया ।

कमरा तीसरी मंजिल पर और पास में एक सूटकेस, एक बैग, बिस्तर के साथ बिस्तर बंद और हाँ घी का डिब्बा, जो घर से चलते वक्त माँ ने मुझे जबरन पकडाया था । इतनी दूर जा रहा है वहाँ पढेगा तो घी बहुत जरूरी है । सेहत सही रहती है । जैसे कि ज़माने भर की पढाई मुझे ही करनी हो वहाँ जाकर ।

जैसे-तैसे मैं तीसरी मंजिल पर एक-एक सामान लेकर पहुँचा । रास्ते में दूसरे लड़के मिले जो एक हफ्ते से वहाँ डेरा डाले हुए थे ।
-"कौन सा रूम मिला है ?" लड़कों के झुण्ड में से एक लड़के ने पूँछा
-S-14
-क्या S-14? अरे वो तो सरदार का रूम है ।
पहले तो मैंने सोचा कि क्या वो इन सब का सरदार है ? फिर तुंरत समझ आ गया कि वो धर्म का सरदार होगा । ना जाने क्यों थोड़ा डर भी लगने लगा कि ये ऐसा क्यों बोल रहे हैं "कि वो तो सरदार का रूम है ।"

खैर चार-छः कदम चलने के बाद मेरा रूम नंबर S-14 आ गया । रूम में घुसते ही वो "हमारा रूम" में तब्दील हो गया । मैं देखता हूँ कि दो लड़के फर्श पर अपना बिस्तर बिछाए उस पर लेटे हैं ।
-"हाय" मैंने कहा
-"हैलो" उन दोनों ने कहा
इसके साथ ही अपने हाथ आगे बढाए, मिलाने के लिए । मैंने हाथ मिलाया ।
-"ये कोने पर पानी क्यों बह रहा है ।" मैंने पूँछा
-"बरसात का टाइम है और ऊपर से पानी रिसता है, शायद कहीं छेद होगा ।" वो बोले
-"शिकायत नही की सही कराने के लिए ।" मैंने कहा
-"अरे सरकारी हॉस्टल है । दिन तो लगेंगे ही सही होने में । मैं कल आया था तो इसमे बल्ब भी नही था । कल ही लाकर लगाया था ।" सरदार बोला

-"अच्छा"
उसके साथ ही मैंने अपना सामान रखा और बिना उन्हें पूँछे उनके बिस्तर पर उनके बीच में लेट गया । जिसके लिए बाद में छः महीने बाद चर्चा होने पर । मेरी उस हरकत को लेकर सभी खूब हँसे थे । खैर लेटने के बाद बात हुई कि कौन कहाँ का है ?

मेरी एक तरफ़ इंदरजीत सिंह अर्थात "सरदार" और दूसरी तरफ़ बासुदेव जिसे हम बाद में "बाबुराव" कहा करते थे ।
- क्यों ?
- अब ये मत पूँछना । ये थोड़ा सा पर्सनल हो जाता है । अगर में बता भी दूँ तो "बाबुराव" ओह माफ़ कीजियेगा बासुदेव मुझे नही छोडेगा ।

उन्ही से पता चला कि हमारे रूम का एक साथी किसी दूसरे रूम में जा बैठा है । क्योंकि हमारे रूम की हालत ख़राब है । हमारा पांचवाँ साथी अभी आया नही था ।

जहाँ शुरू में वो कमरा ऐसा लगता था कि इसमे तो तीन इंसान भी नही रह सकते तो पाँच कैसे रहेंगे । वही कमरा तीन महीने बाद ही ऐसा लगने लगा कि इसमे पाँच लड़के और रह सकते हैं । पूरा समय कब गुजर गया पता ही नही चला । कॉलेज की मस्ती, दोस्तों के साथ गपशप, देर रात की चर्चा, साथ पढ़ना, खेलना और देर रात एक ही कमरे में २०-२० लड़कों का फ़िल्म देखना । सब जैसे कल की ही बात लगती है ।

वहाँ से जिंदगी भर के लिए ढेर सारे दोस्त मिले और अपने दोस्त सरदार के साथ मैंने पूरे ढाई साल एक ही कमरे में गुजारे । पहले दिन सोचा भी न था कि ऐसा भी होगा ।

अक्सर ही वो शब्द याद आ जाते हैं "अरे वो तो सरदार का रूम है । "

8 comments:

Unknown 16 January 2009 at 23:04  

kahani pasand aayi aapki....

Ashutosh 22 January 2009 at 19:25  

गणतंत्र दिवस पर आपको ढेर सारी शुभकामनाएं

प्रेम सागर सिंह [Prem Sagar Singh] 22 January 2009 at 23:26  

आप अच्छा लिखते रहें , मै पढ़ता रहूँगा.

Richa 23 January 2009 at 00:09  

अनिल,
मज़ा आ गया!
aapke teenoin blog bahut ache hain. asha hai ki aap aise acha likhte rahe.

रोमेंद्र सागर 24 January 2009 at 03:16  

अच्छा लिखते हैं आप ...! शब्दों की रवानगी सराहनीय है !

मेरे ब्लॉग पर भी आपकी टिपण्णी के लिए धन्यवाद ! किसी को अपना हम-ख्याल देखना अच्छा अच्छा सा लगता है !
.....ब्लॉग पर आते रहिएगा !

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