सुख क्वालिफिकेशन देख कर नहीं आता

>> 18 July 2015

दुःख न तो कोई क्वालिफिकेशन देख कर आता और नाहीं किसी एक को डिसक्वालिफाई करता. जैसे मेरे स्कूल के प्रिंसिपल के लड़के का दुःख हुआ करता कि वो अपने स्कूल के प्रिंसिपल का लड़का है.

असल में टीचर और प्रिंसिपल के लड़कों की दो प्रजातियाँ होती हैं. एक वो जो बार बार गुस्ताखियाँ कर स्कूल के बाकी लड़कों को पीछे छोड़ टीचरों और अपने बाप यानि कि प्रिंसिपल की नाक में दम कर टॉप रैंक हासिल कर लेते हैं. दूसरी वो जो अपने अरमानों को दबाते, कुचलते अपने बाप के प्रिंसिपल होने का बोझ अपने कन्धों पर लादे घूमते रहते हैं. फींकी हँसी, बनावटी बिहेवियर लिए स्कूल ख़त्म कर लेते हैं जैसे तैसे ये सोच कर कि कॉलेज जैसी चीज़ बची रह गयी है इस दुनिया में.

लेकिन एक पट्ठा इन्हीं दोनों संधि और विच्छेदों को जोड़ बना था. शरारतें ऐसी कि आप करने से पहले सोचो कि इसने ये इजाद कब की और भोलापन मासूमियत की डेफिनिशन को बोल दे कि बहना अपने आप को रीडिफाइन कर लो जाकर.

तो असल बात पर आते हैं. वो ये कि इन्हें प्यार हो जाता है. जब भी कॉन्वेंट की लडकियाँ ग्रुप में निकला करतीं तो ये महाशय किसी के गालों के गड्ढों में डूबते उतराते. वे पूरी तरह क्लीन बोल्ड हो पवेलियन के बाहर से ही हसीं सपनों में खोये पड़े रहते. बाकी के लौंडे भँवरे बन कभी इस फूल तो कभी उस फूल के सपने बुना करते. और डिसाइड ना कर पाते कि कौनसी किसकी भाभी है.

ऐसे ही तमाम रोज़ों के बाद एक अंतिम निर्णय लिया गया कि इजहारे मोहब्बत होना ही चाहिए. कब तलक दर्दे दिल की तकलीफ़ सहेंगे. कब तलक होठों को सिले रखेंगे.

उन्हीं बाद के किसी दिन की खिलती धूप में किसी मोहल्ले के पास के बगीचे के खिले गुलाब को हाथ में लिए शाहजहाँये मोहब्बत सब कुछ लुटा देने को तैयार मैदान में कूद पड़े.

जिन वाक्यों के अंत में ता है, ती हैं, ते हैं आते हैं वे प्रेजेंट इन्डेफीनिट टेन्स के वाक्य होते हैं पढ़ाने वाले मास्साब से सीखी अंग्रेजी के बूते वे साइकिल के सामने आ तो गए लेकिन उसकी रगों में दौड़ती अंग्रेजी के सामने टिक ना सके और अपना क़त्ल खुद क़ातिल अपने हाथों से कर रन आउट हो गए.

बाद में दिल बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है की तर्ज़ पर दोस्तों ने उनको उनके दुखयारे संसार से ये कह बाहर निकाला कि जोड़ी जमी नहीं, कहाँ तो ये और कहाँ वो, यार ये कॉन्वेंट वालियाँ, वगैरह वगैरह करते करते पायथागोरस प्रमेय के अंत जैसा इति सिद्धम लिख दिया.

दोस्ती कुछ हासिल कराये न कराये खुश रहने और रखने के हज़ार बहाने ढूँढ लेती है और बना लेती है.

1 comments:

Shekhar Suman 20 July 2015 at 12:36  

खुशी है कि ये ब्लॉग फिर से चमक रहा है..... दोगुना, तिगुना, चार गुना... हम पढ़ रहे हैं और अब से यहीं पढ़ा करेंगे....

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