वो इश्कबाजी और फिल्मों का दौर

>> 04 June 2009

एक ज़माना गुजर गया....हाँ लगता तो यूँ ही है ...जैसे कि जमाना गुजर गया.....पर दूजे ही पल लगने लगता है कि जैसे कल की ही तो बात हो....शायद जब हम नए नए किशोरावस्था को पार कर रहे थे ....और ठीक से जवान हुए भी थे या नहीं ...इसका कोई अंदाजा नहीं....पिक्चर देखने का शौक हमें बचपन से ही था....या अपने नाना जी के लफ्जों में कहें तो सिनेमा देखने का शौक ...और अंततः कहें तो फिल्म देखने का शौक....

हमें करीब करीब याद है कि किस तरह से बचपन में जब दूरदर्शन पर कभी बुधवार....तो कभी गुरूवार....या फिर कभी शुक्रवार....शनिवार या रविवार को फिल्म आती थी ...हाँ शायद दिन बदलते रहे लेकिन हमारा फिल्म देखने का शौक नहीं बदला....हम बड़े चाव से फिल्म देखा करते थे....और हमें ये भी याद है कि हर सप्ताह के अंत में अपने पूरे परिवार के साथ कोई न कोई फिल्म देखने सिनेमा हॉल भी जाते थे ...चूंकि पिताजी को सिनेमा हॉल का पास मिल जाता था....तो हम आनंदित हो उठते थे .....अच्छा लगता जब सभी साथ में जाते और फिल्म देखते....कलरफुल फिल्म.....बस फिर क्या है धीरे धीरे ये शौक पाल लिया हमने....

फिर जब बचपन बीता...और बीता हमारे स्कूल के दिनों का समय....हमने जब 12 वीं कक्षा प्रथम श्रेणी में पास की....तो उपहार स्वरुप जो पैसे मिले....तो हम पहली बार अपने दोस्तों के साथ अकेले फिल्म देखने गए....बस वो पहला कदम था....

पिताजी का स्थान्तरण हो जाने के कारण....हम लोग आगरा छोड़ अपने दादाजी के शहर फिरोजाबाद आ गए....और यहाँ से शुरू हुआ...एक नया दौर....नए दोस्त बने....कॉलेज जाना प्रारंभ किया....और जिन महोदय से हमारी नयी नयी दोस्ती शुरू हुई ....उन्हें पिक्चर देखने का हमसे ज्यादा शौक था....और वो ढेर सारी फिल्में देख चुके थे....

उनका पिक्चर देखने का शौक इसी बात से समझा जा सकता है कि दूरदर्शन पर आयी हुई ....पिछले 15 सालों का पूरा हिसाब किताब उन्होंने अपनी डायरी में बना रखा था....कि किस दिन कौन सी फिल्म आयी...कौन हीरो था और कौन हीरोइन....सबका नाम लिखा रहता था....खैर ये तो रही दूरदर्शन की बात....और जब से उन्होंने सिनेमा हॉल में फिल्म देखना चालू किया तब से हर साल की देखी हुई फिल्मों की पूरी लिस्ट थी ...कि कब, किस दिन, कितने रुपये में, किस सिनेमा हॉल में कौन सी फिल्म देखी ....इन सब का पूरा पूरा ब्यौरा था उनके पास...

भाग्यवश इनका दाखिला हमारे ही कॉलेज में हुआ....या यूँ कहें कि ये एक संयोग था कि इनका एक साल ख़राब हो जाने के कारण...इन्होने फिर हमारे साथ...हमारे ही कॉलेज में एडमिशन लिया....ये बात और थी कि इनका सेक्शन अलग था.....

उन दिनों हमे ढेर सारे ट्यूशन पढाने के ऑफर आये....तो 2-3 हज़ार रुपये की हमारी आमदनी हो जाती थी...जो हम कब किसपर ..कैसे उड़ा देते ....हमारे घर वाले ज्यादा हिसाब किताब ना पूँछते...उन दिनों बादशाह फिल्म आयी हुई थी....बस यूँ कह लीजिये कि वो पहला पायदान था हम दोनों का एक साथ फिल्म देखने का ...फिर चंद रोज़ बाद सरफरोश देखी ...फिर कोई और...और फिर कोई और....

आलम यह था कि हम इतने बिगड़ गए थे...या यूँ कह लें कि बौरा गए थे कि....एक हफ्ते में हमने 9 फिल्में देखीं.....मतलब साफ़ है कि किन्हीं दो दिनों में हमने एक साथ 2-2 फिल्में देख डाली.....होता भी अक्सर ऐसा था कि हम जय और वीरू की तरह सिक्का उछाल कर ये फैसला करते...कि आज फिल्म देखने जाना है या नहीं....और कौनसी क्लास बंक मारनी है .....और कमबख्त हमारा सिक्का भी हमे फिल्म देखने भेज देता...हमने खूब चेक किया हुआ था कि सिक्का दोनों तरफ से एक सा तो नहीं ....और फिर ये आलम भी हुआ कि सिक्का जाने से मना करता तो भी हम रुकते ना और फिल्म देखने जरूर जाते ...

ऐसा नहीं था कि हमारे कॉलेज में अच्छी और खूबसूरत कुडियां नहीं थीं...बहुत थी....और ऐसे हमें लड़कियों से नफरत भी नहीं थी....लड़कियों का चेहरा देखना हमें अच्छा लगता था....पर ना जाने क्यों उन दिनों फिल्म देखने का ऐसा भूत सवार हुआ कि ....किशोरावस्था को पार करते हुए हम....कोई इश्क न फरमा सके....यहाँ तक कि हमारे साथ के सभी लड़कों के इश्क चल निकले थे...और वो तोहफों में मिले कार्ड, इत्र, टी-शर्ट और ना जाने क्या क्या हमें दिखाया करते...हमारे सामने अपने मिले ख़त भी पढ़ा करते...मगर हम नामाकूल उन दिनों ऐसे फिल्मों में मशरूफ हुए कि....लड़कियों के सुन्दर चेहरे....वो प्यार के किस्से...वो रूठना और मनाना...वो चोरी छुपे एक दूसरे से किसी रेस्टोरेंट में मिलने जाना....ये सब भी हमें अपनी ओर ना खीच सके....और यहाँ तक कि हमारे लिए बीच बीच में किसी दोस्त की महबूबा की ओर से संदेशा आता कि उनकी फलां सहेली को हम अच्छे लगते हैं...लेकिन हमारे कान पर जूँ तक ना रेंगती....मतलब नोट इंट्रेस्टेड

एक साल हमने जम कर फिल्में देखीं...लेकिन खुदा की मर्ज़ी कि हमारे जो साथी थे...उनका दिल पढाई में ना लगने के कारण...उनका वो साल भी खराब हो गया....हालांकि हमने भी कोई ख़ास पढाई नहीं की थी...लेकिन हम ठीक ठाक नंबरों से पास हो गए....हमारे साथी ने वो कॉलेज छोड़ दिया ...वो दूसरे शहर को प्रस्थान कर गए....अब हम अकेले रह गए....कुछ अन्य मित्र बन गए...लेकिन उतनी फिल्में ना देख सके...फिर हम बीच बीच में अकेले फिल्म देख आते...और जब वो भाई साहब घर को वापस आते हफ्ते दो हफ्ते में तो फिर साथ साथ फिल्म देखने जाते....

वक़्त बीतता गया ...हमने खूब जम के फिल्में देखीं....हमारे साथ के दोस्तों ने जम के इश्क किया....साथ जीने मरने की कसमें खायीं....और फिर उस लड़की की शादी में दावत खाने का निमंत्रण भी पाया...अब घर वाले कहें कि जाओ जाके दावत खा आओ ...अब कैसे खा आयें ....कैसे कह दें कि वो उनकी महबूबा की शादी है...खैर ऐसे दो चार किस्से हुए.....और कोई इश्क अपनी सफलता की चोटी पर ना पहुँच सका ....हमने एक साल में 125 फिल्में देखने का रिकॉर्ड बनाया....हाँ इश्क वालों में एक इश्क सफल भी हुआ....लड़का लड़की अपने घर से भाग गए ...और उन्होंने भाग कर शादी कर ली ...आजकल उनकी बिटिया हमें ताऊ कहती है.....फिर हमारा दिल ज्यादा ख़ास उस शहर में लगा नहीं ....एम.सी.ए. में एडमिशन की परीक्षा दी और पास हो गए ...अच्छा सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज मिल गया ...और हम वहाँ चले गए

22 comments:

अजय कुमार झा 4 June 2009 at 20:39  

उफ़ ..ये आप लोग चाहते क्या हैं क्यूँ बार बार उन दिनों की याद दिलाते हैं....यार हमें भी ये शौक खूब चर्राया था, और इतना हिसाब किताब तो नहीं जितना आपके मित्र ने रखा था...मगर याद है की पहली पिक्चर जो याद है की देखी थी वो थी गीत गाया पत्थरों ने ...और एक पिक्चर देखी थी इक्कीस बार ...naam था..मैंने प्यार किया...बाद में जाकर ऐसा किया की shaadee करके ही mane..अब तो kambakht cineplex में sar दर्द हो जाता है...आपकी yaadein हमें भी rumaanee कर जाती हैं......

श्यामल सुमन 4 June 2009 at 21:04  

यादें तो आखिर याद आ ही जातीं है। अच्छी चर्चा।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

ghughutibasuti 4 June 2009 at 21:25  

चलिए फ़िल्म देखने का यह लाभ भी पता चला। यदि यह बात अभिभावकों को पता होती तो वे अपनी संतान को फ़िल्म देखने को उकसाते।
घुघूती बासूती

समय चक्र 4 June 2009 at 22:04  

जवानी की यादे तो खूब होती है . बढ़िया स्मरण

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद 4 June 2009 at 22:50  

ज़माना गुज़र गया....कल ही बात...! हां भैया, समय-समय की बात है:)

Abhishek Ojha 5 June 2009 at 01:44  

फिल्में तो मैंने भी भी खूब देखि... एक रात में चार-चार. पर वो हॉस्टल में :)

Nitish Raj 5 June 2009 at 04:16  

अनिल अच्छा लिखते हो जब भी कुछ अलग सा पढ़ने की इच्छा होती है तो यहां आकर एक दो तो निपटा ही देता हूं। माना कि आना जल्दी जल्दी नहीं होता पर फिर भी इच्छा जरूर रहती है। भई, फिल्में तो हम आज भी खूब देखते हैं कोईं फिल्म नहीं रह जाती जो देखी ना हो पर पिछले साल से काम का कुछ यूं बढ़ा कि ऑफिस से छूट कर आओ तो या तो घर में बेगम और बिटुआ को समय दे लो या फिर यहां पर कुछ लिख लो।

अनिल कान्त 5 June 2009 at 04:57  

शुक्रिया नीतीश सर.... आप अपना स्नेह यूँ ही बनाये रखें....वैसे फिल्में देखना मेरा भी कम हो गया है पिछले २-३ साल से

Smart Indian 5 June 2009 at 06:23  

चलो, अंत भला सो सब भला. यूं ही ख्याल आया की आपके साथी अगर फिल्मों की जगह कक्षा के नोट्स ही गलती से कॉपी में लिख लेते तो आज वे भी पुराने किस्से पोस्ट कर के खुश हो रहे होते - खैर उनकी मर्जी.

Anonymous,  5 June 2009 at 08:32  

हसीन, रंगीन यादें........अच्छी पोस्ट...वैसे फिल्म देखने का शौक तो थोड़ा बहुत हमें भी है पर सिनेमा हाल में नहीं, घर पर....

साभार
हमसफ़र यादों का.......

जयंत - समर शेष 5 June 2009 at 09:55  

Anil Bhai...

Bahut sundar.

Mujhe meri ek puraani kavitaa yaad aa gayee..

Samay ho to padhe yahaan par:
http://jayantchaudhary.blogspot.com/2009/03/blog-post_6598.html

~Jayant

शेफाली पाण्डे 5 June 2009 at 11:45  

हाँ अनिल एक दौर ऐसा ज़रूर आता है ....जब फिल्मों का संसार बहुत अच्छा लगता है
secret.....humne bhi maine pyaar kiya film kareeb 15 -20 baar dekhee

डॉ .अनुराग 5 June 2009 at 12:35  

होस्टलों में मूवी बडा रोल प्ले करती थी ....अंग्रेजी होलीवूद मूवी दो हालो में लगती थी .जिसे हम लड़को के साथ देखते थे .ओर हिंदी मूवी लकियो के साथ...

shama 5 June 2009 at 16:11  

ऐसी कितनी ही मासूम लड़कियाँ और औरतें दुनिया मे हैं, जिनके बारेमे कभी कुछ कहाही नही गया...नाही सुना गया...और नाही मुँह खोलने की ता-उम्र उन्हें इजाज़त ही मिली....रात दिन अत्याचार सहती रहीँ , लेकिन, उस "अत्याचार" को उनके अपने घर वालों ने, समाजने "जायज़" माना !
ये सच है,कि, नुमाइंदे क्या, न्यायालयों मे वकील भी, ऐसी महिलाओं को इतना अपमानित और शर्मिन्दा करते हैं, जिसकी हद नही...! तथा उस केस की ख़बर रोज़ अखबारों मे छपती है... जिसके साथ अपराध हुआ, वो ख़ुद एक अपराधबोध तले दब जाती है..
मैंने बात तो भाषा विषय पे निकाली.....लेकिन, लिखते समय, मै ख़ुद, उस घटनाके ब्यौरे को याद कर, उद्विग्न हो गयी....
अनिलजी,आज तक यहाँ तक पे दी गयी टिप्पणी के लिए शुक्रगुजार हूँ..... ऐसे अपराधियों तो को हम नष्ट नही कर सकते, लेकिन, हमारे नज़रिए और इनसे संलग्न कानून बदलने की निहायत ज़रूरत है।

shama 5 June 2009 at 16:17  

Ab aapke sansmaron ke baareme...mai lagataar padh rahee hun...aur apne sansmarnon ko bhee yaad kar letee hun...
Aapne inhen kaafee kam umr me sanjona aur likh lena seekh liya ! Aur wobhi bade achhese..rukte to shayad dhundalaa jaateen ye yaaden....!Shayad nahee bhee..!

kyonki, meree to nahee dhundlayeen...balki, jab mere saath "jeevan" ghat raha tha, to pata nahee thaa, ki, ye "sansmarnon" kaa roop bhee dharan karega!

sujata sengupta 5 June 2009 at 16:18  

I love films..and am a regular follower of almost all releases. Liked this post a lot.

Sachi 5 June 2009 at 16:51  

Even me, I had both habits, and later on more habit of being in politics.

Each moment has its own beauty...

chavannichap 5 June 2009 at 18:05  

bahut achchhe..chavanni par ise lena achchha lagega..wahan par hindi talkies series par yahi silsila chal raha hai...

सुशील छौक्कर 5 June 2009 at 20:02  

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ...........

Neha 5 June 2009 at 20:28  

bahut hi badhiya likha hai....waise maine bhi ek ricord banaya tha....main apni poori school life main kewal 3baar cinema hall men film dekhne gayi thi....jisme se 2 baar school ki taraf se hi le jaya gaya tha.

Unknown 6 June 2009 at 09:53  

waah waah waah waah
umda post
uttam aalekh !

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