'इत्तेफाक' एक प्रेम कहानी (भाग-2)

>> 18 June 2009

पहला भाग पढने के लिए यहाँ क्लिक करें 'इत्तेफाक' एक प्रेम कहानी
हम दोनों उस शहर के खासम खास रेस्टोरेंट में थे....खास इस वजह से कि वहाँ कॉफी अच्छी मिलती थी और शांति का एहसास होता....उस रोज़ बजने वाला मधुर संगीत एक अलग ही धुन छेड़ रहा था....वो मेरे सामने बैठी थी....'रसीदी टिकट' उसके पास ही थी....हमारे बीच एक खामोशी की दीवार खड़ी हो चली थी...उसे तोड़ते हुए मैंने पूँछा तो कैसी लगी आपको किताब....उसकी ओर से खामोशी टूटी...वो बोली...सच कहूँ तो मुझे बेहद प्यारी लगी ये किताब...एक एक शब्द से जैसे लगाव हो चला था....जैसे जैसे पढ़ती गयी वैसे वैसे में इसमें डूबती गयी....एक बार ख़त्म होने के बाद भी मन कर रहा था कि फिर एक बार पढूं....मैं मुस्कुराते हुए बोला तो पढ़ लेतीं आप....

ये इश्क भी अजीब होता है ना....इंसान को क्या का क्या बना देता है...उसने मेरी ओर देख कर बोला....जैसे शायद मेरी आँखों में झाँक कर पूंछ रही हो....कि आपको क्या लगता है....मैंने कॉफी का घूँट भरा जिसे दुकान पर काम करने वाला वो लड़का अभी अभी रख कर गया था....घूँट गले से उतर जाने के बाद मैं हल्का सा मुस्कुराया....पर कुछ बोला नहीं....वो कहने लगी....आप कम बोलते हैं शायद....नहीं तो...ऐसा तो कुछ नहीं है....मैंने इशारा करते हुए कहा...आप कॉफी पीजिये ठंडी हो रही है....

तो आप क्या पढ़ाती हैं....मेरा मतलब किस विषय की लेक्चरर हैं आप...कॉफी का दूसरा घूँट भरने के बाद मैंने उससे पूँछा....जी समाजशास्त्र....ह्म्म्म्म....बहुत खूब....अच्छा विषय है आपका....हाँ कह सकते हैं....वो बोली....और आपने क्या किया हुआ है....एम.एस.सी मैथ से...अरे वाह....वो बोली....फिर आप बैंक में क्या कर रहे हैं...शक्ल से तो आप पढने लिखने वाले लगते हैं....हमारी तरह लेक्चरर क्यों नहीं बन गए....मैं मुस्कुराया....जी वो हमारे बस का रोग नहीं है....अच्छा जी...तो बैंक की नौकरी में खुश हैं आप....खुश होने की वजह अभी तक मिली नहीं....मैं बोला ...जो करना चाहा उसका मौका नहीं मिला....और जो हुआ वो होता गया...बस आगे देखते हैं क्या होता है....आगे के लिए ऐसा कुछ सोचा नहीं

हमारी बातें थी उनके विषय बदलते जाते और हम कॉफी के घूट भरते जाते...बातों ही बातों में मुझे उसका नाम स्वेता और उसे मेरा नाम आदित्य पता चला....कुछ था जो मुझे उस से जोड़ रहा था....वरना एक भी पल ऐसा नहीं आया कि मुझे लगा हो कि अब मुझे चलना चाहिए...उस रोज़ 5-6 कॉफी हम लोगो ने ख़त्म की...जिसमें पता चला कि उसके पिताजी एक प्रोफेसर हैं और वो अपने माँ बाप की इकलौती संतान है....वो यहाँ मेरी ही तरह इस शहर में अकेली है....किताबों से उसे मेरी तरह ही लगाव है....पर फर्क है कि मैं बस किसी खोज में लगा हूँ...और उसे पूरी तरह पता है कि उसे कब क्या करना है....हाँ शायद उसे ये भी पता था कि उसे लेक्चरर बनना था....उसके अन्दर कहीं भी छल, कपट, झूट और मक्कारी जैसी कोई चीज़ मुझे दिखाई नहीं दी...जिसे में अक्सर दूसरे लोगों में देखता था....शायद यही वजह थी कि मैं लोगों से दूर भागता था

और उसकी बातों में मैं उससे वो किताब 'रसीदी टिकट' लेना ही भूल गया...बातों ही बातों में पता चला कि उसे फूलों से लगाव है, साहिर साहब के लिखे गीत पसंद हैं....उसे मंदिर जाने से ज्यादा अच्छा चर्च जाना लगता है...हिन्दू होते हुए भी उसकी ये बात मुझे थोडी अलग लगी...हालांकि मेरी और भगवान की बिलकुल नहीं बनती थी....और एक लम्बा अरसा बीत चुका था जब मैं आखिरी बार मंदिर गया था

काफी लम्बा समय बीत जाने के बाद उसने कहा कि अब उसे चलना चाहिए...हालांकि वो मेरी बातों से समझ चुकी थी कि भगवान में मेरी ज़रा भी दिलचस्पी नहीं है...फिर भी ना जाने क्यों उसने मुझे रविवार के दिन चर्च चलने के लिए बोला....मैं क्या कहता....मैं उसकी ओर देखकर मुस्कुराया....साफ़ तौर पर ना बोलने वाला इंसान था मैं....लेकिन मैंने उससे ना चाहते हुए भी हाँ बोल दी....आखिर और करता भी क्या....उस शहर में ऐसा था भी कौन जिसके साथ मैं समय बिताने वाला था....

घर लौट कर मैं अपने बिस्तर पर करवट बदल रहा था...आज उससे की हुई बातें दिमाग में चल रही थीं....ऐसा क्यों हो रहा था....शायद मुझे भी नहीं पता था....ऐसा नहीं था कि पहले कभी किसी लड़की से मैंने बात नहीं कि थी....पर इसमें ऐसा कुछ खास था....जो मुझे अपनी ओर खींचे जा रहा था....शायद ऐसा कुछ जिससे मुझे राहत मिलती हो....खैर जैसे तैसे मैं सुबह होने से पहले सोया....

दो दिन बाद रविवार था....मुझे ठीक याद था कि मुझे जाना है...जबकि मैं उस दिन ना जाने की सोच कर आया था....मैं चर्च के कुछ ही दूरी पर खडा था....समय था कि बहुत बड़ा लम्बा फासला सा तय करने जैसा लग रहा था....अपनी ऐसी हालत में सिगरेट पीने की आदत पर में काबू ना कर सका...पास ही से एक सिगरेट खरीद मैंने सिगरेट सुलगा ली....और उसके आने का इंतज़ार करने लगा....वो एक बहुत ही प्यारे सूट में आई...शायद आज मैंने उसे जी भर कर देखा....वो बहुत ही प्यारी लग रही थी....दूर उसे आते देख मैंने अपनी सिगरेट फेंक दी....वो पास आई और मुस्कुराते हुए बोली...आप सिगरेट पीते हैं....

मैंने कहा हाँ...कभी कभी पीता हूँ....उसने कुछ नहीं बोला...जबकि मैं सोच रहा था कि शायद ये भी दूसरी लड़कियों की तरह ऐसा कुछ बोलेगी कि छोड़ दो या बुरी बात है...पर उसने ऐसा कुछ नहीं बोला....उसने अपने बैग से पानी की बोतल निकाली और मुझे दी....मैंने मुंह में पानी डालकर गला साफ़ किया....वो मुझे अपने साथ चर्च के अन्दर ले गयी....ये पहली बार था जब मैं किसी चर्च में आया था....एकदम शांति....गिने चुने लोग....वो एक जगह बैठ गयी....मैं भी उसके पड़ोस में बैठ गया....

फिर मैं कभी सामने देखता...और कभी उसके चेहरे को...उसने अपनी आँखें बंद कर रखी थी....उस पल वो मुझे बहुत मासूम और नेक इंसान लगी....यूँ लगा कि बहुत ही प्यारी आत्मा है...शायद उसने कुछ माँगा भी हो....पता नहीं क्या....लेकिन माँगा ही होगा....ज्यादातर लोग माँगने ही तो जाते हैं....यही सोच रहा था मैं....उसने कुछ रुपये वहाँ दान में दिए....इससे ये तो पता चला कि कम से कम उसने अपनी प्रार्थना में पैसे तो नहीं माँगे होंगे...वो बोली पता है...ये पैसे गरीब बच्चों के काम में आते हैं...उनकी पढाई, खाना, कपड़े वगैरह....मुझे उसकी बातों ने प्रभावित किया

अभी बस हम चर्च के बाहर पैदल चल ही रहे थे कि पास ही एक बच्चा सड़क पार कर रहा था कि एक गाडी अनियंत्रित होकर उसे टक्कर मारकर चली गयी....उधर अफरा तफरी मच गयी....मैंने बच्चे को गोद में उठाया....और रिक्शे में बैठ पास ही अस्पताल ले जाने लगा...स्वेता भी मेरे पीछे दूसरे रिक्शे पर आई...डॉक्टर को दिखाने पर....डॉक्टर ने उसकी पट्टी की और कुछ दवा लेने को बोल दिया.....उसकी दवा खरीद कर उस बच्चे को उसके घर पहुंचा दिया....उसके माँ बाप हमे बहुत रोकते रहे लेकिन देर ज्यादा हो जाने के कारण हमने फिर कभी आने का वादा किया

उस बच्चे के घर से वापस लौटते समय वो काफी देर खामोश रही....फिर बोलने लगी कि इस दुनिया में ज्यादातर लोग ऐसे क्यों होते हैं....जब उस बच्चे को चोट लगी तो सब बस खड़े देख रहे थे.....समझ नहीं आता कि लोग ऐसे क्यों होते हैं....मैंने उसे रिलेक्स होने के लिए बोला....कहा कि ये सब तो चलता रहता है....वो बोली नहीं आखिर क्यों हम इतने स्वार्थी हो जाते हैं....समझ नहीं आता....मैं उसकी ओर देख कर मुस्कुराया और कहा चलो कोई नहीं अब वो ठीक है....चिंता मत करो....मैंने उसे घर वापस जाने के लिए बोला....रिक्शे पर उसे बैठा कर मैं पैदल चलने को हुआ....वो बोली आदित्य आप अपना मोबाइल नंबर दे दीजिये....मुझसे नंबर लेने के बाद वो चली गयी....मैं उसके ओझल हो जाने तक उसे देखता रहा....मेरे घर पर पहुँचने पर एक मैसेज आया..."मुझे फक्र है कि आप जैसा इंसान मेरा दोस्त है"...उसके नीचे नाम लिखा था स्वेता....मैंने उसे बदले में मैसेज किया कि चलो अब आराम कर लो कल शाम को हम लोग मिलते हैं....

हम दोनों की मुलाकातों का एक लम्बा दौर चल निकला....हम दोनों आपस में एक दूसरे से बहुत घुल मिल गए थे....हम दोनों घंटो एक दूसरे के साथ बैठे बातें करते रहते.....वो बातें करते करते थकती ना थी...और मुझे उसको सुनते रहना अच्छा लगता....शायद अब हम दोस्ती के रिश्ते से आगे बढ़ने लगे थे....वो जब तब मेरे लिए कुछ न कुछ बना के भी लाती....फिर एक दिन मैंने कहा कि चलो इस रविवार को पास में ही एक सुन्दर सी झील है वहां घूमने चलेंगे....उसने कहा ठीक है

आगे जारी है

20 comments:

श्यामल सुमन 18 June 2009 at 05:40  

अच्छी प्रेम कहानी। जारी रहे।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

विवेक रस्तोगी 18 June 2009 at 08:42  

आपने प्रेम कहानी में बांधा हुआ है इंतजार है अगली कड़ी का।

Unknown 18 June 2009 at 08:49  

silsila ye pyaar ka chaltaa rahe.........chalta rahe...

Anil Pusadkar 18 June 2009 at 09:43  

ह्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्। अच्छा हुआ वो उम्र गुज़र गई,वर्ना ऐसा लगता कि आदित्य अपन ही हैं।बहुत बढिया अनिल,बहुत बढिया।

ओम आर्य 18 June 2009 at 11:52  

सुन्दर प्रेमकहानी ........दिन पर दिन आपकी लेखनी मे निखार आ रहा है ............अतिसुन्दर रचना. खो गये भाई

निर्मला कपिला 18 June 2009 at 13:33  

bahut badiyaa dhaaraa pravah me b ehate huye --- rukna khalta hai -- par agli post ka intzar to karanaa hi padegaa

Shahid Ajnabi 18 June 2009 at 15:13  

kal se jyada aaj kahani ne bandha. jaise dil ek dil se judta hai, theek usi tarah aapki kahani ne joda.

subhan allah

shahid "ajanbi"

अन्तर सोहिल 18 June 2009 at 16:43  

तारतम्य बना रहे, अच्छा लग रहा है।
नमस्कार

mark rai 18 June 2009 at 17:38  

कहीं पढ़ा था ''मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नही ।'' मै भी इस मानव यात्रा का एक पथिक हूँ । पथ की पहचान अभी करनी है । इर्ष्या से ग्रषित नही होना चाहता । गर्व से दूषित भी नही होना चाहता ।
......अतिसुन्दर रचना.

दिगम्बर नासवा 18 June 2009 at 18:44  

कहानी मस्त जारी है............ देखें आगे क्या होता है

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' 18 June 2009 at 19:41  

रचना अच्छी लगी....बहुत बहुत बधाई।
आप का ब्लाग अच्छा लगा...बहुत बहुत बधाई....
एक नई शुरुआत की है-समकालीन ग़ज़ल पत्रिका और बनारस के कवि/शायर के रूप में...जरूर देखें..आप के विचारों का इन्तज़ार रहेगा....

Shrikant Divedi 18 June 2009 at 20:48  

bahu hi accha laga padh kar..aapke 3 bhaag ka intazaar hai mujhe...

ss 18 June 2009 at 21:05  

Rochak! Agli kadi ka intejaar hai

Bhavya.B 18 June 2009 at 21:18  

Wow...waiting for part no.3.

Riya Sharma 19 June 2009 at 20:59  

Bhut hee kasish liye huve jeewant kahani ...

meetha ,gun gunata prem
bahut khoob!!

uar sabhee padne walon ke shakl ik see ho jati hai :))

दिनेश शर्मा 27 June 2009 at 12:22  

आपकी लेखनी में दम है साधुवाद !

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