जाति-वर्ग और आरक्षण विरोधी मानसिकता बनाम संघर्ष और सफलता

>> 03 October 2011

क्या दलितों और आदिवासियों पर होने वाले जुल्म, अत्याचार, पक्षपात, शोषण, दमन, बलात्कार, मार-पीट से सम्बंधित कारगुजारियों को कभी इतने बड़े पैमाने पर यह लोग पोस्ट करते या समाचार को शेयर करते या किसी और के द्वारा की हुई पोस्ट को शेयर करते कभी दिखे हैं ?

जवाब आप सबको मालूम है कि " नहीं " ।

चन्द मामूली लोग जोकि अपने पूर्व के लोगों द्वारा किये हुए कुकृत्यों को गलत मानते हैं और जो जातिवादी भावना से ऊपर उठ गए हैं । वे ही आपको ये कार्य करते दिख जाएंगे ।

अन्यथा

वे अपने वर्ग विशेष, अपनी जाति, और केवल और केवल अपनी श्रेष्ठता के नशे में मदमस्त रहने वाले लोग आपको आरक्षण के विरोध में दिन और रात पोस्टें ठेलते और शेयर करते दिख जाएंगे ।

हाँ यदि आपने उनसे जाति के सिस्टम को समाप्त करने या जातिविरोधी बात की तो फिर आप देखिये वे किस कदर धर्म पर मुड़ जाएंगे । एकदम से कहेंगे कि आजकल कहाँ है जातिवाद ? हम सब एक हैं । सभी हिन्दू हैं । सभी ये हैं या सभी वो हैं ।

अरे मेरे भाई/बहन अगर सब एक हैं और जातिवाद नहीं है तो क्या ये समाचार पत्र और इंटरनेट पर देश के अलग अलग हिस्सों में होने वाली घटनाएं क्या अमेरिका के लोग आ आ कर करते हैं ।

बीते कुछ दिनों से आप इनके अंदर जलन की और अंदर दबी शैतानी/खुरापाती हरकतों को देख, पढ़ और सुन रहे होंगे । इससे आप इनकी मानसिकता को बहुत आसानी से समझ सकते हैं कि ये दलितों और पिछड़े लोगों द्वारा आगे के पायदान पर आ खड़े होने से कितने बौखलाए हुए हैं । इन्हें पहले तो विश्वास ही नहीं हो पा रहा है कि इनके द्वारा पीछे की ओर धकेल दिए गए वर्ग के लोग भी अपनी मेहनत से सबसे आगे आकर खड़े हो सकते हैं।

ये चाहते हैं कि जिन्हें इन्होंने आज तक हर किस्म की सुविधा, शिक्षा और हक़ से दूर रखा । वे लोग उससे दूनी ललक से और मेहनत से आगे बढ़ रहे हैं ।इन्हें विश्वास ही नहीं हो पा रहा है कि सदियों से पीछे धकेल दी गयी कई पीढ़ियों की जो नई पौध तैयार हो रही है वो बहुत बड़े बड़े विशाल पेड़ बनकर ही दम लेगी ।

दोस्तों जो जलते हैं उन्हें जलने दो । जो कुढ़ते हैं उन्हें कुढ़ने दो । जो चाहते हैं कि आप पीछे रहो । जो आपके आगे बढ़ने को देख नहीं पा रहे । जो ये सब सह नहीं पा रहे ।

उन्हें आप आगे बढ़ते हुए और सफलताएं अर्जित करते हुए अपना हुनर, अपनी काबिलियत दिखाते जाओ ।
उन्हें बता दो कि छल, प्रपंच, ढोंग, डर, कहावते, मुहावरे और उनके फैलाये जाल को तुम सब ठेंगा दिखाकर ऐसे ही आगे बढ़ते रहोगे ।

अपनी इच्छाओं की महक जिंदा रखा करो जान

>> 30 August 2011

-> रेलवे ट्रैक को चीरकर धड़धडाती हुई जाती रेलें. रिमझिम रिमझिम होती बारिश. और छतरीनुमा प्लेटफोर्म की बैंच पर बैठा मैं. कितना हल्का, कितनी राहत. देखा जाए तो रेलवे स्टेशन जैसी शांत जगहें दुनियाँ मैं बहुत कम हैं. तमाम ध्वनियों के मध्य भी हम स्वंय के कितने पास होते हैं. कई रोजों बाद अपने आप के इतने पास हूँ . लगता है जिस उर्जा की आवश्यकता मुझे हरदम रहती है. वह मुझे अपने एकांत में ही मिलती है.

-> ठंडी हवा जब गालों को छूती है तो शरीर में एक लहर दौड़ जाती है. तुम्हारी बहुत याद आती है. तुम साथ होतीं तो यहाँ का मौसम और भी खूबसूरत हो जाता. तुम्हारे हाथों का स्पर्श, तुम्हारे गालों को छूते उड़ उड़ कर आते बाल और रह रह कर अपनी उँगलियों से तुम्हारे कानों के पीछे धकेलता मैं.

-> तुम अपने जिस्म में एक दिया जलाओ, एक दिया मैं अपने जिस्म में जलाऊँ. हमारे अँधेरे जंगल में रौशनी हो जाएगी. फिर हम इस जंगल को आसानी से पार कर लेंगे.

-> अपनी इच्छाओं की महक जिंदा रखो. तुम्हारी इच्छाओं के दीयों से ही मेरी जिंदगी रौशन रहेगी. नहीं तो मेरा यह जिस्म एक अँधेरा जंगल है. मैं अपने ही अँधेरे में गुम हो जाऊंगा.

-> मुझे याद है कि बचपन के अपने उन दिनों में जबकि मौहल्ले की बत्ती चली जाती थी और घर अँधेरे में डूब जाया करते थे. तब 'पोशम्बा भाई पोशम्बा, डाकुओं ने क्या किया' के स्वर गूंजने लगते थे. न जाने क्यों आज मुझे अपने वे दिन स्मृतियों में महक पैदा करते दीख रहे हैं. न जाने कल को इसी तरह का कोई और दिन फूल बनकर खिल जाए.

-> तब हम बड़े होने के लिए ईश्वर से कितनी जिदें किया करते. लाख मिन्नतों पर भी वह हमारी एक न सुनता और हमारी फ़रियाद को टालता जाता. हमारे गुस्से पर भी हमे एक-एक करके कितनी सौगाते देता रहता. किन्तु हम अपनी जिदों के कॉलर खड़े किये रहते. इस पर भी उसने हमे ठंडी हवा की थपकियाँ दे कर बहलाया. फिर भी जब हम ना माने तो एक रोज़ हमें बड़प्पन के रेगिस्तान में छोड़ गया. जो न तो ख़त्म होने का नाम लेता है और ना ही दूर तलक किसी पेड़ की छाँव दिखाई पड़ती. या मेरे मौला बच्चे की जिद पर नाराज़ नहीं हुआ करते. बच्चे को बच्चा ही रहने दो न.

जाति प्रथा, आरक्षण, आर्थिक पिछड़ापन, वैचारिक पिछड़ापन और बराबरी की बातें

मैं अक्सर देखता और सुनता हूँ कि आरक्षण के मुद्दे पर वो वर्ग जिसकी वजह से आरक्षण की नौबत आई बहुत ज्यादा बेचैन हो उठता है. कभी कोई स्टेटस ठेल रहा है, कभी कोई स्टेटस फॉरवर्ड कर रहा है, कभी कोई फ़ोटो शेयर कर रहा है. लेकिन कभी जाति प्रथा को समाप्त करने के लिए इस वर्ग ने कभी कोई स्टेटस न तो लिखा और न ही फॉरवर्ड किया. एक नार्मल मनोरंजन वाले स्टेटस पर आपको इतने लाइक मिल जायेंगे और यदि आप जाति प्रथा से सम्बंधित कोई लेख, कोई फ़ोटो, कोई स्टेटस डालेंगे तो मज़ाल है कि उतने लाइक या कमेंट मिल जाएं.

यह है मानसिकता जो हज़ारों सालों से वहीँ की वहीँ जमी हुई है. उखड़ने का नाम ही नहीं लेती.

मैं अपने उन साथ में पढ़ने वाले लड़कों से पूंछना चाहता हूँ कि तुम्हारे साथ पढ़ने वाले उस वर्ग के सभी के सभी 75% लड़के क्या मुझसे बेहतर थे. मैं किसी एक का नाम नहीं लेना चाहता किन्तु क्या वो फलाना लड़का क्या मुझसे हर मामले में बेहतर था. क्या ज्यादातर वे 75% लड़के कोचिंग करके नहीं आये थे. और शेष 25% बामुश्किल कोई कोई ने कोचिंग की शक्ल देखी होगी.

और आप खुद जानते हैं कि उन 75% में से बहुत से कान्वेंट और प्राइवेट स्कूल के पढ़े हुए थे. कुछ की अंग्रेजी दूसरों को inferiority complex पैदा करने के लिए काफी थी. और आप चाहते हैं कि आपके उन अस्त्र शस्त्रों से निहत्ते लोग लडें और जीत जाएं.

आपकी जाति प्रथा को ख़त्म करने की ललक तो उसी दिन दिख गयी थी जब आपमें से ही एक लड़का अपने बचपन से लेकर बड़े होने तक के संस्कारों के साथ शराब पीकर 'चमार' शब्द का हीनता के साथ प्रयोग कर रहा था. और दरवाजे पीट पीटकर गालियाँ बक रहा था. तब आपमें से कोई आगे नहीं आया. आपने उसको 25% के क्रोध से बचाने के लिए एक कमरे में बंद कर लिया था. आपने बाद के दिनों में भी कभी उसको नहीं समझाया कि उसने जो किया वो गलत था. उसकी सोच गलत है. वो अपने में सुधार कर ले.

उन 75% में से ज्यादातर जिनके पहले से नाते रिश्तेदार कंपनियों में बैठे हैं और जिनके नंबर, जिनका ज्ञान मुझसे कितना दूर था. वे सबके सब उन्हीं कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं. कोई क्षेत्रीयता की दुहाई देकर तो कोई जाति का उपयोग कर सबके सब चिपक गए. तो आप बताइये मेरे उनसे ज्यादा नंबर, ज्यादा ज्ञान किस काम का हुआ.

और आप जो दलितों, आदिवासियों के जलाये जाने, उनका शोषण किये जाने, उनकी बेटी बहुओं का बलात्कार किये जाने, उनको उनकी ज़मीनों से बेदखल किये जाने को एक सामान्य प्रक्रिया मानते चले आ रहे हैं और मान रहे हैं तो आप ये जान लीजिए कि आप कहीं से भी बराबरी की बात न तो सोच रहे हैं और ना ही कर रहे हैं.

न तो आप खबरें पढ़ते और ना ही उन ख़बरों का कोई संज्ञान लेते जिन ख़बरों को हमारी मेन स्ट्रीम मीडिया कभी नहीं दिखाती.

तो माफ़ करना आपके द्वारा आरक्षण के विरोध में स्टेटस ठेलना, फ़ोटो शेयर करना या किसी और की स्टेटस को शेयर करना मुझे आपके द्वारा कहीं से भी सभी को बराबरी पर लाने की बात नहीं लगती.

हथेलियों में फूलों सी ताजगी, पवित्र प्रेम की नदी

>> 29 August 2011

-> कई विचार जुगनुओं की तरह जगमगाते हैं और फिर बुझ जाते हैं. मैं उन्हें पकड़ने के कई प्रयत्न करता हूँ. इन तमाम जुगनुओं में कभी कोई जुगनू हाथ आया तो आया. नहीं तो यह खेल चलता ही रहता है. सुबह के उजाले में जब यही जुगनू तितली बन जाते हैं तो कितने लुभावने हो जाते हैं. मैं अपनी हथेलियों को पसार देता हूँ किन्तु तब भी हर तितली कहाँ मेरी हथेली पर आकर बैठती है. या तो रात का अँधेरा ज्यादा लम्बा हो जाए तो मैं जुगनुओं को पकड़ सकूँ या मेरी हथेलियों में वह फूलों सी ताजगी आ जाए कि हर तितली उस पर आ बैठे.

-> ना जाने क्यों अपने गले में तौक लगाये जिंदगी घंटों के बावस्ते गुजरने से मन दूर भागता है. इस स्वछन्द मन की अभिलाषाओं की उड़ान उड़ना चाहता हूँ. मन माफिक क्रियाकलाप करने से जीवन के आर्थिक और सामजिक उद्देश्यों की पूर्ती हो जाए तो कितना अच्छा हो. अपने मन की अभिलाषाओं के पूर्ण संसार में तसल्ली की साँस लेना चाहता हूँ. मेरी जो रचनात्मक एवं भावनात्मक नदियाँ हैं, उन्हें में लबालब बहते हुए देखना चाहता हूँ. इतना कि वे कम से कम मेरी अपनी बंज़र जमीन में फूल खिला सकें.

-> मैं जानता हूँ कि प्रेम में यह रेतीले रेगिस्तान भी आते हैं और उनका आना तय है. जो थकाने और दिशा भ्रम के लिये बने होते हैं. कई कई बार वे हमें लू के थपेड़े देते हैं, ज़बान सुखा देते हैं और फिर पानी की बूंदों का धोखा देते हैं. मेरे मन की श्रृद्धा मुझे एक पल के लिये भी विचलित नहीं होने देती. मेरी सबसे बड़ी प्यास प्रेम में मिलने वाले आँसुओं की है, जो हमारे मिलने पर ख़ुशी से छलक उठेंगे. यह रेगिस्तान चाहे कितना भी लम्बा हो, मैं इसे पार करूँगा और अपने पवित्र प्रेम की नदी को हासिल करके रहूँगा.

-> कौन सही है, कौन गलत है. इन प्रश्नों के उत्तर हम कब तक माँगते रहेंगे. हम आखिर स्वंय से कब तलक धूप छाँव का खेल खेलते रह सकेंगे. हम जिस दुनिया में रहते हैं उसके सापेक्ष जरुरी तो नहीं कि हमें हमारे उत्तर मन मुताबिक़ मिलें. क्या यह मुनासिब नहीं कि हम उस बाहरी संसार और उसके लोगों से उम्मीदें करना छोड़ दें. आवश्यक तो नहीं कि हर कोई उन प्रश्नों के संसार में प्रवेश करे, उसे जिए और तब आप जिन सन्दर्भों में उनके उत्तर चाहते हैं, उनके उत्तर दे.

-> हमारे अपने अनुभवों के संसार में केवल हम स्वंय जीते हैं. उस संसार के रचयिता हम स्वंय होते हैं. हम लाख चाहें भी तो किसी अन्य को अपने उस संसार की ऊष्मा से परिचित नहीं करा सकते. उसके दुःख, पीड़ा, ख़ुशी, भावनाएं केवल हमारे अपने लिए होती हैं. दूसरों के लिए वह एक अलग संसार है. वह उसके बारे में जान सकता है, पढ़ सकता है, सुन सकता है किन्तु उसे महसूस नहीं कर सकता. ठीक वैसे ही जैसे बच्चे पढ़ा करते हैं किताबों में किसी अन्य ब्रह्माण्ड को.

-> आज इंसान बने रहने की शर्तें दुनिया ने जितनी महँगी कर दी हैं. वह निश्चय ही इंसानियत को दुर्लभ कारकों में शामिल कर देगा. कारक जो दुनिया में शांति और सौम्यता बनाये रखते हैं. इस पूरे बदलते परिदृश्य में मनुष्यता पर गहरे संकट छाते जा रहे हैं. मेरे वे सभ्य दोस्त जिनके कारण मनुष्यता कायम है. उनके अपने ही घरों में अशांति, दुःख, पीड़ा ने प्रवेश पा लिया है. कितना अच्छा होता कि अपने इंसान बने रहने के साथ साथ हम दूसरों की इंसानियत का कुछ हिस्सा भी बचा कर रख पाते.

डायरी 28.08.2011

निपट सूनी दोपहर के बाद जब यह डूबती शाम आती है तब मन में रिक्तता का और भी अधिक आभास होता है. दूर पेड़ों के झुरमुट से पंक्षी एक एक कर निकल उड़ते हैं और धीमे धीमे एक समूह बना लेते हैं. ना जाने किन स्थानों पर उड़ कर जाया करते हैं. निश्चय ही उनके बनाये अपने घर होते होंगे. मेरा ना जाने क्यों उस सूने एकांत कमरे में लौटने का मन नहीं होता. मैं चाहता हूँ एक घर जिसे अपना घर कह सकूँ. जहाँ प्रेम हो, रूठना हो, मनाना हो, इंतजार करती हुई साथी हो जो मेरे देर से पहुँचने पर मुझसे झगडे. फिर मैं उसे अपना प्यार जताकर मनाऊँ.

वह जब ऑटो से उतरती है और फिर उसकी निगाहें मुझे तलाशने लगती हैं. तब उस एक पल को मैं भूल जाता हूँ कि अभी जो इस एक पल से पहले में यहाँ खड़ा था वह मेरा अपना ही एक सत्य था. जब हर ऑटो, हर वैन में मेरी नज़रें भीतर प्रवेश कर जाती थीं और मैं हर उस यात्री के पड़ोस में झांकता था जहाँ वह मुझे बैठी नहीं मिलती थी. हर एक नए पल में घडी की सुइयों का टिकटिकाना महसूसता था. और लगता था कि आज यह मुई इतनी सुस्त क्यों चल रही है. यह जानते हुए भी कि अभी उसके आने में देर है. मैं स्वंय को सड़क पर भागती-दौड़ती गाड़ियों की कतारों में उलझा लेता था.

इन दिनों ज़बान को एक नया रोग लग गया है. मुई दिमाग का साथ देना कभी कभी छोड़ देती है. लम्बे समय तक यदि किसी से फोन पर बात करता रहूँ तो इसके फिसलने के खतरे बढ़ जाते हैं. जब यह आभास दिल को अधिक होने लगता है कि यह अपनी लय छोड़ चुकी है तब वार्तालाप को विराम देने का मन हो आता है. नहीं तो कब किसी के सामने यह प्रेम प्रदर्शन करने लग जाए इसका अंदाजा लगाना मुमकिन नहीं. आज ही सुबह से शाम तलक दो बन्दों से "आई लव यू" कहते कहते बचा हूँ. कहीं किसी रोज़ इसका यह स्वाभाव मेरे सिर के लिए आफत मोल ना ले बैठे.

भूगोल ने मेरे संसार में उथल पुथल मचा दी. शिशुत्व से अब तलक इस विषय में मेरी कभी दिलचस्पी नहीं रही. हमारा सदैव छत्तीस का आंकड़ा रहा. और अब इतने बरसों बाद उसने अपने पुराने बही खाते खोल लिए हैं. और कह रहा है "बच्चू जिंदगी कोई आसान शह नहीं". यह मेरा अपना एक निजी सत्य है कि मुझे यदि कहीं खड़ा कर दिया जाए और पूँछा जाए कि पूरब किधर है और पश्चिम किधर. तो मैं खुद में ही भटक जाऊं. और आज वही पूरब-पश्चिम मुझे नाकों चने चबा रहे हैं. वाह रे भूगोल तेरी लीला अपरम्पार है. मुझे बख्श दे मेरे भाई. पुरानी बातों पर मिट्टी डाल.

Diary 27.08.2011

-> सड़क के किनारे लगे खोखेनुमा दूकान पर चाय सुदक रहा हूँ. कमीज़ की जेब में शाम 06:20 के शो की टिकट रखी हैं. आज ना जाने क्यों इतनी बेतकल्लुफी छाई है. घर को ना जाकर यूँ सड़क पर धुल उड़ाने को आमादा हैं. निश्चय ही घर पर कोई इंतज़ार में बैठा होता तो कदम यूँ बेफिक्री ना दिखाते. सोचता हूँ एक और चाय गले से उतार लूँ उसमें किसी का क्या जाता है.

-> आज दोपहर भर सड़क की खाक़ छानता रहा. होने को ऐसा कुछ होना तय नहीं था किन्तु उस बीच इतना भर हो पाया कि शऊर आ जाने के लायक किताब खरीद लाये. और जब भूख मुँह को आ गयी तो ठेले पर निवाले पेट में डाले. सोचता हूँ शऊर आते-आते आ ही जायेगा. इस सबके बीच तुम्हारी बहुत याद आयी. वे सडकें तुम्हारे साथ चलने की आदी हो गयी हैं.

-> दूर कहीं से झींगुरों के स्वर मिश्रित होकर गूँजते हैं. कभी पास तो कभी दूर. यहाँ के घर अँधेरे में दुबके जान पड़ते हैं. लोग अपने-अपने घरों की सरहदों के पार निकल आये हैं. और मैं छत पर चारपाई बिछाए औंधे पड़ा हूँ. फिर आकाश देखता हूँ तो कभी उसमें फैले टिमटिमाते तारों की दुनिया. रह रह कर तुम्हारी शक्लें उभर आती हैं. अपनी आँखें मूँद लेता हूँ तो तुम और भी पास चली आती हो.

-> प्रेम होने भर के लिये नहीं होता. ना ही वो होता इतिहास रचने के लिये. वह होता है दिलों की सच्चाइयों को जिंदा रखने के लिये. वे जो चाहते हैं सच्चाइयों को झुठलाना. उन्हें प्रेम कभी पसंद नहीं आता. किन्तु सच्चाइयाँ कभी नहीं मरती. प्रेम बचा रहेगा हमेशा किसी जीते हुए सच की तरह.

डायरी 23.08.2011

>> 24 August 2011

-> पंक्तिबद्ध खड़े सुस्ताते हुए ये पेड़ ऐसे प्रतीत होते हैं मानो दिन भर के थके मांदे हों और अब डूबती शाम को स्वंय को हल्का कर लेना चाहते हों. निश्चय ही क्या उन्हें थकान का अनुभव नहीं होता होगा ? जीवन तो उन में भी है. और हम जो सांस ले रहे हैं वह उनकी ही तो देन है. वे केवल देने के लिए बने हैं.

और हम ?
क्या केवल इस पृथ्वी को भोगने के लिए ही आये हैं.

मैं जब इन पर बारिश की बूंदों को गिरते हुए देखता हूँ तो उन पत्तियों पर रखी मोती सी बूंदों को छू लेने के लिए आतुर हो जाता हूँ. उन्हें छूकर शरीर में एक सुखद लहर दौड़ जाती है. आत्मिक सुख की अनुभूति शायद इसे ही कहते हों.


-> लिखने और ना लिख पाने के मध्य मानसिक द्वन्द चलता ही रहता है. फिर यह केवल मेरे अपने स्वंय के मन का ही सत्य तो नहीं. मेरी जो रचनात्मक जरूरतें हैं, उनका दुनियावी जरूरतों से सामंजस्य स्थापित कर पाना न केवल आवश्यक है बल्कि जीवनगत सच्चाई है.

मेरे अपने होने में और उसका शुद्ध बने रहने के बीच बस केवल एक फाँक है. इस पार से उस पार होने में कितना कुछ बदल जाता है. और बदलने के लिए तैयार रहता है. परिवर्तन जीवन के रहस्यों में से एक कटु सत्य है. मैं केवल अपने होने को बचाए रखना चाहता हूँ. बुद्धिशीलता में परिवर्तन आवश्यक हैं.

->प्रेम जिस पर ना जाने कितना लिखा गया है और कितना लिखा जाना शेष है. हर नई पीढ़ी ने इसे अपने शब्द दिए हैं. और अपने एहसासों को उन में पिरोया है. फिर भी जो लिखता है वह जीवन पर्यंत यही महसूसता है कि इस से सरल कोई शब्द नहीं किन्तु वह अपने जिन कौमार्य एहसासों को बयान करना चाहता था वह अभी भी कहना शेष है.

और वह शेष बना ही रहता है.

मैं जो प्रेम के अबाध सागर में डूबता, तैरता और उतराता रहता हूँ. आज उसी शेष के सिरे पर खड़ा हूँ. इस अपरिभाषित प्रेम के इस शेष सिरे को कितना आगे ले जा सकूँगा. मैं प्रेम में हूँ या प्रेम मुझ में. यह उलझ गया है.

-> चारों ओर काले बादल छाये हुए हैं. रह रहकर ठंडी हवा चलती है तो पेड़ों की पत्तियां हिलने लगती हैं. एक पल को लगता है कि वे सामूहिक नृत्यगान कर रहे हैं. फिर हवा का एक झोंका गालों को छू जाता है. स्नायुओं में झुरझुरी दौड़ जाती है. फिर बादल गरजता है, एकाएक बिजली चमक उठती है.

बारिश की बूँदें अपनी लय में गिरती ही जाती हैं. ऐसा लगता है मानों प्रकृति आज उत्सव मना रही है और मैं वह मूक दर्शक हूँ जो केवल उसका आनंद ले सकता है. मैं इस सृष्टि की रागात्मक प्रवृत्ति से भाव विभोर हूँ.

होना, होते रहना

>> 11 June 2011

-तुम मुझे बिल्कुल भी अच्छे नहीं लगते ।
-बिल्कुल भी नहीं ?
-ह्म्म्मम्म .....बिल्कुल भी नहीं ।
-इत्ता सा भी नहीं ?
-अरे कहा ना बिल्कुल भी नहीं फिर इत्ता सा कैसे कर सकती हूँ ।
-"मैं सोच रहा था कि इत्ता सा तो करती होगी ।" कहते हुए मैं मुस्कुरा जाता हूँ ।

वो उठकर चल देती है । मैं सिगरेट फैंक देता हूँ और उसके पीछे चलने लगता हूँ ।
-अच्छा बाबा मान लिया कि तुम इत्ता सा भी प्यार नहीं करती । अब ठीक ....खुश

वो आगे बढ़ते हुए पत्थर उठाकर नदी में फैंकते हुए कहती है "तुम सिगरेट पीते हुए बिल्कुल भी अच्छे नहीं लगते । "
-बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता क्या ?
-नहीं, बिल्कुल भी नहीं
-अच्छा तो ठीक है, कल से बीड़ी पीना शुरू करता हूँ ।
-ओह हो...तुम ना...करो जो करना है मुझे क्या ?

मैं मुस्कुरा जाता हूँ ।
-हाँ, तुम्हें क्या ? देखना कोई मुझे जल्द ही ब्याह के ले जायेगी और तुम बस देखती रहना ।

वो खिलखिला कर हँस पड़ती है ।
-जाओ जाओ बड़े आये ब्याह करने वाले । कौन करेगा तुम से शादी ?
-क्यों तुम नहीं करोगी ?
-मैं तो नहीं करने वाली ।
-क्यों ?
-क्यों, तुमने कभी कहा है कि तुम मुझसे शादी करना चाहते हो ।

मैं मुस्कुराते हुए कहता हूँ -
-क्यों, कभी नहीं कहा ?
-चक्क (अपनी जीभ से आवाज़ निकलते हुए वो बोली)
-कल, परसों या उससे पहले कभी तो कहा होगा (मुस्कुराते हुए)

वो नाराज़ होकर चल देती है ।
-"अच्छा ठीक है । नहीं कहा तो अब कह देता हूँ ।" (मैं उसका हाथ पकड़ कर रोकते हुए कहता हूँ )

मैं उस बड़े से पत्थर पर चढ़ जाता हूँ और कहता हूँ
-सुनो ए हवाओं, ए घटाओं, ए नदी, पंक्षियों और हाँ पत्थरों । मैं अपनी होने वाली बीवी से जो मुझे इत्ता सा भी प्यार नहीं करती और जिसे मैं इत्ता सा भी अच्छा नहीं लगता, बहुत प्यार करता हूँ । मैं उससे और सिर्फ उसी से शादी करना चाहता हूँ । (कंधे ऊपर करते हुए मैं उसको देखकर मुस्कुराता हूँ !)
-होने वाली बीवी ? (वो बोली )
-हाँ (मुस्कुराते हुए )
-तुम ना टूमच हो कहते हुए वो मुस्कुरा जाती है ।

वो चल देती है । मैं पीछे चलते हुए सिगरेट जला लेता हूँ । वो पीछे मुड़कर देखती है और पास आकर सिगरेट छीनकर फैंक देती है । प्यार से "आई हेट यू" जैसा कुछ बोलती है ।

किताब की नायिका एवं महत्वपूर्ण पात्र

>> 21 May 2011


मैं जब उनसे मिला था, तब सर्दियों के दिन थे. तब शुरू के दिनों में वह मेरे लिए अन्जाना शहर था. बाद छुट्टी के मैं रेलवे ट्रैक के किनारे बैठा सिगरेट फूँका करता था. और जब मन बेहद उदास हो जाया करता, तब मैं वापस अपने कमरे पर जा किसी उपन्यास के पृष्ठ पर निगाहें गढ़ा लेता. और विचार के खंडहरों में बेहद अकेला घूमता रहता.

वे सब एक-एक करके मेरी जिंदगी में आये या यूँ कहूँ कि उनकी जिंदगियों में मैं आया. कभी-कभी ऐसा होता है कि दुनियावी रौशनी में कोई एक शख्स आपको अलग ही रौशनी में नहाया दिखाई पड़ता है. उस झूठ के संसार में सच का दिया जलाए रखने वाला शख्स. वह हर उन पलों में आपको बेहद करीब और अपना लगता है, जितना आप उसे जानने और समझने लगते हैं.

वे तीनों मेरी जिंदगी के आकाश में गए बेशकीमती सितारे हैं. उन्हें पा लेने जितना हुनर मुझे नहीं आता, वे तो स्वंय ही मेरी किस्मत के दामन में गए. कैसे, क्यों और किस तरह से यह सब हुआ, इतना जानने समझने का वक़्त ही नहीं मिला. बहरहाल....

वे मेरी जिंदगी की किताब के बेहद महत्वपूर्ण पात्र हैं. उनके बिना यह किताब लिखी ही नहीं जा सकती. हाँ उनके होने से यह किताब अनमोल अवश्य हो जाती है.

प्रथम पात्र :

उनकी उम्र रही होगी यही कोई पैंतीस-सैंतीस साल. हाँ बाद के दिनोंमें जब उनका जन्म दिन आया तो उनकी उम्र में एक-आध बरस का इजाफा और हुआ होगा. बहरहाल......

सवाल उम्र का नहीं-समझ और विचारों का है. वे पहली नज़र में ही समझदार और सुलझी हुई महिला नज़र आती हैं. हाँ, जैसे-जैसे आप उनके करीब पहुँचते जाते हैं, और वे आपको मित्र के रूप में अपना लें तो उनके दिल की गिरहें खुलती चली जाती हैं. और उनके दिल में रह रही तमाम उलझनें आपसे रू--रू होने लगती हैं. हाँ इसके लिए आपका इंसान होना आवश्यक है. नहीं तो आप उनके दिल के बाहर खड़ी दीवार तक भी पहुँच सकें, ये आसान जान नहीं पड़ता.

वे दिमाग से सुलझी हुई और दिल से बेहद उलझी हुई स्त्री हैं- ऐसा मैंने हमारी पहचान के बाद दिनों में कहा था. और वे मुस्कुरा उठी थीं.

उनमें चुम्कीय आकर्षण है. जो आपको खींचे ही चला जाता है. जितनी वे बाहर से खूबसूरत दिखती हैं, असल में उससे कई गुना वे दिल से खूबसूरत हैं. किसी एक रोज़ मैंने उनकी आंतरिक खूबसूरती के मोहवश उनसे कहा था. यदि आप मेरी हम उम्र होतीं तो शायद मैं आपके प्रति प्रेमिका रूपी मोह में पड़ जाता. तब उन्होंने अपने मन के बेहद कोमल कोणों से इस बात को जाना और समझा था. और हम करीब से करीब गए थे.

वे मेरी बेहद प्रिय मित्र हैं. मेरी जिंदगी में उनका निजी और महत्वपूर्ण स्थान है.

जब वे साहित्यिक चर्चाएँ करती हैं, तब बेहद अच्छी लगती हैं. तब लगता ही नहीं कि हमारी उम्रों में एक दशक का फासला है. वे एकदम से अपनी उम्र से दौड़कर मेरी उम्र की सीमारेखा को भेदती हुई, मन की आंतरिक सतह को स्पर्श कर लेती हैं.

नवम्बर के वे बीतते दिन मेरे दिल की डायरी में सदैव जीवित रहेंगे. जिन दिनों में वे मेरी जिंदगी का अहम् हिस्सा बन गयी थीं.


किताब की नायिका :

इस शहर ने मुझे वो सब कुछ दिया, जिसके वगैर मेरी जिंदगी अधूरी थी.

दिसंबर के उन निपट निर्धन दिनों में उसने मेरे दिल पर दस्तखत किये थे. और एकाएक ही मेरी जिंदगी मुझे बेशकीमती लगने लगी थी. जो भी हो, उससे पहले मुझे जिंदगी से रत्ती भर भी प्रेम नहीं था.

सच
कहूँ तो ये वे दिन थे, जब उसको हमेशा के लिए पा लेने की चाहत ने दिल में जन्म ले लिया था. मेरे मन की निर्ज़ां घाटियों में वह इन्द्रधनुष बनकर छा गयी थी.

वो मेरी उम्र का दस्तावेज़ है . जिसका हर शब्द हमारी मोहब्बत की स्याही से लिखा गया है।

तब तलक मैं अपनी जिंदगी के प्रति जवाबदेह नहीं था. जब वह मेरी जिंदगी में आई, मेरे मन ने मुझसे जवाब मांगने प्रारम्भ कर दिए थे. क्या मैं इन लम्हों को यूँ ही ख़ामोशी से बीत जाने दूँगा ? क्या जो हो रहा है, या होना चाह रहा है, उसका ना होना जता कर, इस सबसे अंजान बना रहूँगा ?

और तब मेरे अपने स्वंय ने आवाज़ दी थी - नहीं

तभी मन में उस चाहना ने जन्म ले लिया था. जिसका दायरा उसी से प्रारम्भ होता और उसी पर ख़त्म. उन्हीं दिनों मन में एक ख़याल आया-
"उसकी मासूमियत और सादगी पर मैं अपनी जान दे सकता हूँ"

लेखन मेरे लिए प्रथम था, शेष सुखों के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं. उन्हीं बाद के दिनों में मुझे यह आंतरिक एहसास हुआ - जाने कबसे वह मेरे प्रथम के खांचे में जा जुडी है.

बावजूद इसके कि हमारे मध्य महज़ औपचारिक बातें हुई थीं. वह भी बामुश्किल दो-चार दफा. किन्तु उसके होने मात्र से वह आंतरिक चाहना मन की ऊपरी सतह पर तैरने लगती थी. और मैं उसके प्रेमपाश में हर दफा ही, उसकी ओर खिंचा चला जाता रहा.

तब मुझे इतना भी ज्ञात था कि वह मेरे बारे में कितना कुछ वैसा ही सोचा करती है, जितना कि मैं. हाँ, केवल इस बात का भरोसा होने लगा था कि वह इंसानी तौर पर मुझे पसंद अवश्य करती है. कभी-कभी उसकी आँखों से प्रतीत होता कि इनमें कितना कुछ छुपा है. वो सब जो शायद मैं नहीं देख पा रहा, या शायद वो सब जो वह दिखाना नहीं चाहती.

वे ठिठुरती सर्दियों के ख़त्म होने वाले जनवरी के दिन थे. जब उसकी आँखों में मैंने अपने लिए चाहत पढ़ी थी. फिर जब-जब वह मेरे सामने आई, उन सभी नाज़ुक क्षणों में मेरे मन में प्रेम का अबाध सागर उमड़ पड़ता. जो सभी सीमारेखाओं को तोड़ता हुआ उसको अवश्य ही भिगोता रहा होगा. बहरहाल.......

फरवरी और मार्च के मिले जुले गुलाबी दिन बीत चुके थे. और मैं अपने दिल की बात, दिल में ही कैद करके रहता था. और वो जानती थी कि किसी एक रोज़ मैं उससे अवश्य कहूँगा- "तुम मेरी जिंदगी की किताब की नायिका हो"

उन दिनों उसकी आँखें बेहद उदास रहने लगी थीं. जबसे उसे पता चला था कि मैं इस कार्यस्थल को छोड़कर चले जाने वाला हूँ. उसकी गहरी उदास आँखों में मैं डूब-डूब जाया करता था. मन बेहद दुखी था और एक अजीब रिक्तता ने मुझे घेरा था. कई-कई बार मैंने उससे कुछ कहना चाहा और हर बार ही मेरे अपने स्वंय ने रोके रखा.

वे मार्च के बेहद उदास दिन थे.

मेरे लिए तब वह आत्मिक संघर्ष का दौर था. मन में संशय उपजता था कि कहीं यह खाली हाथ रह जाने के दिन तो नहीं और फिर अगले ही क्षण मैं मन को थपथपाता, समझाता और बहलाता. किन्तु वह केवल मुस्कुरा कर रह जाता. शायद कहना चाहता हो -"बच्चू इश्क कोई आसान शह नहीं"

और हुआ तब यह था कि अंततः जब वह स्वंय की भावनाओं पर नियंत्रण ना रख सकी थी . तब एक रोज़ वह मेरी दी हुई किताबों को मुझे वापस देने चली आयी थी.

वे बेहद भावुक क्षण थे.

वह मेरे इतने करीब थे, जितना कि पहले कभी नहीं रही थी. उसकी भावनाएं उसके चेहरे पर लकीर बनकर उभर आयी थीं. वह मेरे चले जाने की खबर से बेहद खफा थी- जबकि अब तक मैंने उससे अपनी भावनाओं को साझा भी नहीं किया था. शायद बात यही रही होगी. यहीं आत्मिक पीड़ा उपजती है. और मैं उस क्षण उसकी पीड़ा को महसूसने लगा था.

मैंने उससे इतना ही कहा था-"इन किताबों को वापस क्यों कर रही हो? इन्हें तो मैंने पढने के लिए ही दिया है" और तब उसने कहा था "जब आप ही जा रहे हैं, तो इन किताबों को मेरे पास छोड़कर चले जाने की कोई वजह नहीं बनती. मुझे नहीं पढनी आपकी किताबें."

हमारे बीच गहरी ख़ामोशी छा गयी थी.

फिर जाने कैसे मेरे दिल से ये शब्द निकले थे "तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो"
और उसने कहा था "जानती हूँ"

उसका चेहरा तब खिल उठा था.

फिर बीते दिनों की उसको हाथ देखने की बात याद हो आयी थी. जब उसने पूँछा था "क्या देख रहे हो ?" और मैंने टाल दिया था कि "फिर कभी बताऊंगा, वक़्त आने पर."

उसने जानना चाहा "उस रोज़ हाथ में क्या देख रहे थे" तब मैंने गहरी सांस ली थी और कहा था "तुम ही वो लड़की हो जिसके साथ मैं जिंदगी भर खुश रहूँगा."
शायद वह जान गयी होगी यह उन लकीरों की नहीं, मेरे दिल की आवाज़ है.

मेरी इस बात पर वह खिलखिला उठी थी.

और अगले दो रोज़ बाद उसने अपना दिल की बातों को किसी पवित्र नदी की तरह बह जाने दिया था. जिसका हर शब्द मेरे मन को स्पर्श करते हुए कह रहा था -"मैं तुमसे बेहद मोहब्बत करती हूँ."

सुनो आज मैं तुमसे एक बार फिर कहना चाहता हूँ - "तुम मेरे लिए इस दुनिया की सबसे खूबसूरत आत्मा हो."

तुम बिन मेरी भाषा की पवित्रता बची नहीं रह जाती

>> 15 May 2011

सुबह से शाम तक तुम्हारी आवाज़ के लिए तरसता रहा. हमारी स्मृतियों के आईने में तुम्हारा होना खोजता रहा. उलट-पलट के उन बीत गए बेतरतीब पलों की श्रंखलित कड़ियाँ बनाने का प्रयत्न करता रहा किन्तु हर नए क्षण यह ख़याल हो आता की किस पल को कहाँ जोडूँ. हर लम्हा जो तुम्हारे साथ बिताया है वो बेशकीमती है. तुम्हारी उजली हंसी की खनक कानों में रह-रह कर गूंजती रही. मन की रिक्तता को भरने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु तुम नहीं तो कुछ भी नहीं. तुम जब पास होती हो तो कुछ भी और पा लेने की तमन्ना बची नहीं रह जाती. जीवन में तुम्हारे सिवा मुझे और कुछ नहीं चाहिए. तुम हो तो सब कुछ है, नहीं तो कुछ भी नहीं.

भावनाओं के समुद्र से तैरकर बाहर आने का मैं लाख प्रयत्न करूँ किन्तु हर बार ही डूब-डूब जाता हूँ. कई दफा मैंने इसके परे भी जाने का प्रयत्न किया है और जानना चाहा है कि क्या यह केवल प्रेम की कोमल भावना ही है ? इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं ?

मन का पोस्टमार्टम कर देने से केवल उसकी चीर-फाड़ ही संभव है. उसमें बसी आत्मा फिर भी कहीं रह जाती है. सच कहूँ तो तुम मेरे मन की वह आत्मा हो.

देर रात तक करवटें बदलता रहा. मन उदासियों से भरा हुआ था. कई दफा मन को बहलाने का प्रयत्न करता रहा. किन्तु यह संभव ना हो सका. तुम्हारे बिना कुछ भी तो अच्छा नहीं लगता. ना गीत गुनगुनाना, ना कविता बुनना और ना ही किसी कहानी की तिकड़मबाज़ी करना. तुम बिन मेरी भाषा की पवित्रता बची नहीं रह जाती.

दो बजे हैं और चार को तुम्हें जगाना भी है. जहाँ दूर कहीं तुम न जाने सो रही होगी या जाग रही होगी. जानता हूँ यही कहोगी कि देखना तबियत ख़राब कर ली तो तुम से बात नहीं करुँगी.

अभी-अभी मर जाने का ख़याल आया और मैंने उसे चले जाने दिया. याद हो आया तुम्हें मेरे साथ एक लम्बी जिंदगी जीनी हैं.

तुम्हारे बिना मैं सूखी नदी हूँ

>> 12 May 2011

कल शाम जब रेल प्लेटफोर्म को छोड़ चली गयी, बाद उसके मुझे उदासियों ने आ घेरा. और फिर हर नए सैकण्ड लगने लगा कि तुम मुझसे दूर, बहुत दूर चली जा रही हो. हालांकि हम एक ही शहर में होते हुए भी रोज़ कहाँ मिल पाते थे किन्तु फिर भी ना जाने क्यों यह कैसा सिलसिला है जो थमता ही नहीं. शाम बीती और फिर रात भर दम साधे तुम्हारी आवाज़ की प्रतीक्षा करता रहा. उन बेहद निजी पलों में कई ख़याल आते और चले जाते रहे.

तुम्हारी बहुत याद आई.

सुबह बेहद वीरान और उदासियों से भरी हुई सामने आ खड़ी हुई. मन किया कि कहीं भाग जाऊं, कहाँ ? स्वंय भी नहीं जानता. जिस एकांत में तुम्हारी खुशबू घुली हुई हो और मैं पीछे छूट गयी तुम्हारी परछाइयों से लिपट कर स्वंय को जिंदा रख सकूँ. उस किसी एकांत की चाहना दिल में घर करने लगी है. देर सुबह आई तुम्हारी आवाज़ की खनक, मेरे बचे रहने को इत्मीनान कराती रही .

तुम्हारी सादगी के भोलेपन पर अपनी जिंदगी लुटा देने को मन करता है. और बाद उसके जब तुम कहती हो कि मेरे साथ का हर लम्हा तुम्हें मेरे पास होने का एहसास दिलाता है. सोचता हूँ कितने तो बेशकीमती लम्हें होंगे जो पास होने का एहसास दे जाते हैं. मेरी उदासियों के साए में उन जगमगाते रौशन कतरों को शामिल कर दो. मैं भी तुम्हारे पीछे इन दिनों को जी सकूँ. नहीं तो सच में, तुम बिन मर जाने को जी चाहता है.

तुम मेरे वजूद में इस कदर शामिल हो जैसे तुम्हारे बिना मैं कोई सूखी नदी हूँ.

चम्पे की सुगंध सी तुम्हारी बातें

>> 11 April 2011

बसंत के दिन बहुत पीछे छूट चुके हैं, उन्हें याद करने जितनी फुर्सत खुदा ने अभी नहीं दे रखी . इन दिनों वो पूँछा करती है कि "उन दिनों में दिल की बात कहने का कभी मन नहीं हुआ ?" और मैं खामोश निगाहों से उसकी गहरी आँखों में देखने लगता हूँ . जो मुझे बीते दिनों की याद दिलाती हैं, जब मैं चोर निगाहों से उसे देखा करता था और वो जताना चाहकर भी कुछ नहीं जताती थी . प्रारम्भ के दिनों की जब वह कोई बात बताती है तो वे दृश्य सामने उभर आते हैं . जब मैं उसके मोहपाश में बंधा उसकी ओर खिंचता ही चला जा रहा था. और वो कोई डोर दिन-ब-दिन मजबूत होती ही चली गयी .

हमारे विश्वासों की दुनिया में खुदा की खुदाई थी, वहाँ तूफ़ान का नामोनिशाँ न था .

अक्सर मेरी आँखें वक़्त की दीवार लाँघकर, उन बीते हुए दिनों में चली जाती हैं, जहाँ उसकी मुस्कुराहट से मासूम कलियाँ झड़ा करती थीं . तब मेरे हिस्से इतनी समझ नहीं थी कि उससे कुछ कह दूं . इन दिनों उससे बार-बार कहने को मन करता है कि-

"तुम्हारी सादगी की पवित्रता मेरे मन में बसे तुम्हारे प्रेम को हर नए दिन बढ़ाती चली जाती है .

वो अक्सर पूँछा करती है कि "हम अब तलक क्यों नहीं मिले थे ?" और मैं मुस्कुराकर कहता हूँ "सच तो ये है कि ऊपर वाले ने हमारे हिस्से की मोहब्बत हमसे बचा कर रखी थी और अब वो सूद समेत हमें दे रहा है ." और जब वह इस बात पर मुस्करा दी तो मैंने कहा "या मेरे मौला मेरी मोहब्बत को मेरी नज़र ना लगे" .

अभी कुछ रोज़ पहले मैंने उससे कहा "तुम्हारी उजली हँसी की खनक, मन के वीरान अँधेरे को रौशन कर देती है". इस बात पर सारा घर सिक्कों की खनखनाहट सा गूँजने लगा . कई रोज़ वह संगीत कानों में बजता ही रहा .

सोचता हूँ अबके दफा उसकी कुछ कतरने कुर्ते की जेब में रख लाऊंगा और उसके बाद के अँधेरे में हाथों से उलट-पलट कर देख लिया करूँगा. जैसे बच्चे संभाले रहते हैं, अपनी जेबों में चन्द सिक्कों को .

सुनो मैं तुमसे आज, अभी, अपने मन की कोमल सतह पर उग आये उन शब्दों को कह देना चाहता हूँ, जो हर नए रोज़ बढ़ते ही चले जा रहे हैं -

"मैं तुमसे बेहद मोहब्बत करता हूँ. चम्पे की सुगंध सी तुम्हारी बातें, मुझे अपनी ओर खींचती ही चली जाती हैं ."

हमारे हिस्से की उम्र

>> 23 March 2011

बीते कई रोजों से ख़याल आ-आ कर लौटते रहे और मन हर दफा ही उन्हें टटोलता रहा कि क्या यह बीच आ गए फासलों का एक क्रम है या केवल रिक्त मन की सतह पर सागर की लहरों की तरह थपथपा कर चली जातीं बीते पलों की यादें .

यूँ तो ख़त लिखने का रिवाज़ सा ख़त्म हो गया है किन्तु यह मन न जाने क्यों आपका ख़याल आते, हर दफा ही कोरे कागजों की ओर ताकने लगता है. जानता हूँ इस बात पर आप मुस्कुरा उठेंगीं . वैसे एक बात और है, बीते सालों में मैंने कई-कई दफा ख़त लिखना चाहा किन्तु हर दफा ही यह सोच कर रह जाता कि आखिर कोई उतना हकदार भी तो हो जिसको कि ख़त लिखे जा सकें . जो उनकी अहमियत को समझे और मन के उस निजी स्पेस से निकले खयालातों, द्वन्द और सच्चाइयों को उसी स्तर पर उनकी स्पर्शता का अनुभव कर सके . और शब्दों के माध्यम से उनका वह स्पर्श एक हाथ से दूसरे हाथ में पहुँच कर बचा रह सके .

उन शब्दहीन कागजों को जब छूता हूँ तो अपनी कम उम्र का ख़याल हो आता है . जानता हूँ आपकी और मेरी उम्रों में एक दशक का फासला है, किन्तु यह मध्य आ खड़ी हो जाने वाली दीवार तो नहीं . हर दफा, हर बात यूँ उम्रों पर ही तो नहीं छोड़ी जा सकती - है न ? वैसे आपको नहीं लगता, कई दफा हमें हमारी तबियत का इंसान यूँ अचानक से आ मिलता है कि हम उस एक पल यकीन नहीं करते या यकीन नहीं करना चाहते, कि भला कोई हू-ब-हू ऐसा कैसे हो सकता है . और हम वक़्त की नदी के अलग-अलग किनारों पर खड़े-खड़े उसके सूख जाने की राह तकते हैं .

यकीन मानिए कि आपके प्रति मेरा प्रेमी जैसा आकर्षण नहीं बावजूद इसके कि अभी छः रोज़ पहले ही मैंने हम दोनों के साझे जानकार से कहा था कि अगर आप मेरी हम उम्र होती तो यकीनन मैं आपके मोह में पड़ जाता . हाँ आप सही समझ रही हैं - प्रेमिका रूपी मोह . जानता हुँ मेरी इस बात पर आप खिलखिलाकर हँस रही होंगी और सोच रही होंगी कि इन पंक्तियों का किसी को साझेदार बना लें . और मिलकर खूब देर तक हँसें . मत करियेगा, हर किसी में साझेदार बनने जितनी समझ नहीं होती .

और हाँ इस से एक कदम आगे जाकर अब आप यह मत सोचने बैठ जाइएगा कि यहाँ हमारी उम्रों की खाई है . बल्कि मैं अपने निष्कपट मन से आपसे अब सब साझा कर सकता हूँ . उन सभी कोनों को बुहार सकता हूँ जहां अब तक ना जाने कितने खयालात जमा होते रहे हैं . ताकि वहाँ रिक्त स्पेस बचा रह सके . नहीं तो एक बोझ बना रहता है . और हम उसे अधिक से अधिक एक कोने से उठा दूसरे कोने में धकेल देते हैं .

वैसे पिछली दफा आपने अपने बारे में मेरी राय जाननी चाही थी . तब कुछ कह ना सका था या यूँ कहिये मन नहीं हुआ था . अभी-अभी सोचा तो - "आप दिमाग से कुछ-कुछ उलझी हुईं और दिल से बेहद सुलझी हुई स्त्री हैं ."

दिन के अँधेरे और रात के उजाले में

>> 02 March 2011

वे क़र्ज़दारी के दिन थे . मैं उससे उधार माँगे किसी कीमती लम्हे में अपनी मोहब्बत बयाँ करता और वो कहती "देखो मैं अपनी पोटली से इन बेशकीमती लम्हों को तुम्हें सौंप तो रही हूँ मगर याद रखना जब वापस माँगू तो उँगलियों पर गिन कर देना" और मैं उसके तकादे पर अपने होठों से चुप्पी लगा देता. हाथों की लकीरों से वे लम्हे पीछे छूट गए . और हमारी क़र्ज़दारी से लोगों को रश्क़ होता है .

सूने पड़े रेलवे ट्रैक के किनारे रखे पत्थर पर बैठा मेरा अपना स्वंय, सर के ऊपर फैलते धुएँ को देखता है और मुझसे कहता है - बस करो मियाँ ये सुबह से सातवीं है . और मैं उसे दिलासा देता "सब्र करो, इतनी भी जल्दी क्या है, ज़रा सुलगने दो अरमानों को, राख पर पैर रख कर मिलकर आगे चलेंगे ." उसकी यारबाजी से बहुत मोहब्बत है . कम-स-कम वो झूठी दिलासा नहीं देता . मैं उसका हाथ खींचता हुआ, अपने दावत खाने पर ले आया . तो बर्खुरदार ने आठवीं पर कुछ नहीं कहा .

फिर ना जाने किस बात पर वो रूठकर चल दिया . ढलती शाम के मुहाने से होते हुए, हमने रेलवे पुल पर मिलकर खाक़ छानी . कुछ बेतरतीब सी बातों को सुलझाया, कुछ किस्सों को दोहराया और पिछवाडा झाड़ते हुए वापस चल दिए . रेल, ट्रैक को चीरती सी दूर कहीं जाकर गुम हो गयी . और उसके पीछे की शेष, कुछ हवा की कतरने, हमारे गले से लिपटकर चली आयीं . पास के ही सुस्ताते कैंटीन पर दो चाय सुडकीं और उससे अपना गला छुडाते हुए आगे बढ़ आये .

देर रात कलम लिखवाने पर आमादा थी . और नींद का कोसों पता नहीं, तो उठे और तकिये पर पीठ को टिका कर सोचा किये . उस पर से तुर्रा ये कि बत्ती गोल . करवटें बदलते-बदलते जब रहा नहीं गया तो मोमबत्ती का हाथ पकड़ कलम की हसरत पूरी करते रहे . फिर ख़याल आया कि जाड़ा पास खिसक आया है . जानते हैं कि अंतिम विदाई पर जाने वाले गले से कुछ ज्यादा ही लिपटते हैं . रजाई को थपथपाकर जगाया और खुद घोड़े बेचकर सोने चल दिए . सोते-सोते ख़याल आया - आज अच्छी यारबाजी की .

भविष्य का अतीत

>> 20 February 2011

जब शाम ढलने लगती तब वे सड़क के किसी छोर पर सुस्ताते से चल रहे होते । दोनों के सिरों पर अँधेरा घिर आता, तब लड़की अपने बैग को टटोलने लगती । वह ऐसा लगभग हर बार करती और लड़का जान जाता कि अब उसके जाने का समय आ गया है । उसे लगता कि लड़की के बैग की भी अपनी एक पूरी दुनिया है । और जब उसने लड़की को एक बार कहा था कि "लड़की के बैग के अन्दर झाँकने में उसे डर लगता है । ना जाने उसमें कितने दुःख, कितनी पीडाएं कैद हों ।" और लड़के की इस बात पर वह एकाएक हँस दी थी और फिर अगले ही क्षण उसका चेहरा भाव शून्य हो गया था । यह अपने आप में एक पीड़ा थी, किसी का चेहरा भाव हीन हो जाना । ना दुःख, ना सुख, ना चिंता और ना ही कोई प्रश्न दिखे तो उसे देखकर एक पीड़ा उभरती है । त्वचा पर बनी सफ़ेद फुंसी के चारों ओर महीन नोक से कुरेदती सी ।

लड़की शाम की आखिरी बस पकडती ओर अपने हॉस्टल को चली जाती । और तब लड़के के पास करने को कुछ नहीं रह जाता । बीतती दोपहरों में उसके पास एक उद्देश्य होता कि अभी शाम होने को है, जब वह अपनी ऑफिस से निकलेगी ओर वे दूर जाती सड़कों पर चहलकदमी करते फिरेंगे । परिचय से पहले के दिनों में लड़की अपने ऑफिस से सीधे गर्ल्स होस्टल चली जाती थी । किन्तु बाद के इन दिनों में वे साथ-साथ घुमते रहते । और उनके क़दमों तले एक प्रश्न चलता रहता कि "लड़के के बीते दिन दिये हुए इंटरव्यू का क्या हुआ ?" किन्तु लड़की उस प्रश्न को कभी ऊपर तैरने नहीं देती । अपनी ओर से कोशिश करती कि वह जितना उसे नीचे धकेल सके, धकेल दे ।

शुरू के दिनों में जब वे मिलते थे तो किसी मॉल के, सिनेमा हॉल में, पर्दे के सामने की पिछली कुर्सियों पर बैठ कर सुस्ता लेते थे । लड़का, लड़की के बालों से खेलता और अपने गर्म ओंठ उसके कानों के पास रख देता । लड़की अपने पास की जमा बातों को स्वतंत्र करती रहती । किन्तु हर सुख अपने साथ पीड़ा लेकर आता है । जिसका आभास धीरे-धीरे होता है । बाद के दिनों में लड़का चुप-चुप सा रहता और ऐसे में लड़की उसे छोटे-मोटे खर्चे करने देती । तब लड़के के चेहरे पर नई लकीरें उभर आतीं । वह नये उत्साह से अपना प्यार, अपना हक़ जताता । लड़की इस मनोवैज्ञानिक कारणों को जानती थी । और अपने उन साथ के पलों में उसे बीते दिनों की पढ़ी हुई किताबों की बात याद हो आती । उसने रिश्तों को बचाए रखने की कोई किताब, बहुत पहले के बरसों में पढ़ी थी । जब वह अकेली होस्टल में पड़ी रहती थी और उसके पास कोई रिश्ता नहीं था । इस बात के याद हो आने पर वह मुस्कुरा देती थी । तब लड़का पूँछता कि वह क्यों हँस रही है और वह टाल जाती कि कोई खास वजह नहीं । उसे अपने बचपन की बात याद हो आयी थी । लड़का बचपन की देहरी के उस पार नहीं जाना चाहता था । क्योंकि उन दिनों में वह उसके साथ नहीं था । और जिन दिनों में हम किसी के साथ ना हों । उन दिनों की उसकी पीड़ा और आनंद की बातों को हम सुन भले ही लें किन्तु अपने मन के कोनों से बुहार देते हैं ।

देर रात लड़की का फोन आता और वह लड़के से और अधिक खुल जाती । लड़का उसके इस खुलेपन पर घबरा सा जाता और ऐसे सोचता जैसे कि वह बिल्कुल उसके पास है । एक ही बिस्तर पर, ठीक पति-पत्नी की तरह । या साथ रह रहे उन जोड़ों की तरह । जिनमें उन प्रेम के क्षणों में लड़की केवल अपने कपडे ही नहीं उतार फैंकती बल्कि अपने मन की सभी तहों को उधेड़ कर रख देती है । तब वह केवल वह होती है । केवल शरीर मात्र नहीं । उसका पवित्र अस्तित्व । और इसी लिये पुरुष उन आखिरी के क्षणों में जल्दी से अलग होकर स्वंय को सीमित कर लेते हैं । असल में वे या तो डरे हुए होते हैं या उस पहचान की सामर्थ्य नहीं होती । जिससे कि वे उस उधेड़े हुए सच को प्यार कर सकें । और जो भी पुरुष ऐसा कर पाते हैं उनकी स्त्रियाँ सुखी रहती होंगी ।

सोने से पहले के अंतिम क्षणों में जब लड़की कहती कि वह उससे बेपनाह मोहब्बत करती है । तब लड़का उस दिन भर के दबे हुए प्रश्न को ऊपर ले आता । और भविष्य की नींव के भीतर प्रवेश करके ऊपर मुँह ताक कर चिल्लाता "मैं तुमसे
मोहब्बत करता हूँ । तुम दुनियाँ की सबसे खूबसूरत लड़की हो ।"


नोट: अपने लिखे की चोरी होती है तो मन बेहद दुखी होता है. जब वह बिना लेखक का नाम दिए उसका उपयोग स्वंय की रचना बता कर करने लगता है . एक चोर यह है :
http://zindagiaurkuchbhinahi.blogspot.com

दायरा

>> 13 February 2011

दूर जाती सड़क पर से उतरते हुए धूल भरा कच्चा रास्ता प्रारम्भ हो जाता था . गाँव के किशोर एवं युवा उस छोर पर आसानी से दिख जाते थे . उनके मध्य स्त्रीलिंग की बातें हुआ करतीं . विषय कम ही बदलते और यदि ऐसा होता भी तो वह स्त्रीलिंग से पुल्लिंग हो जाते थे . उनका संसार घर की देहरी से निकल, रामदीन पंसारी की दुकान से होकर, गाँव के सभ्य व्यक्तियों की असभ्य योजनाओं से गुजरता हुआ, देर रात की छुप कर पढ़ी जाने वाली सस्ती अश्लील किताब तक जाता था .

चोपड़ा और ज़ोहरों के फ़िल्मी गाँव की तरह वे सभी खुशहाल नहीं थे और ना ही उतना भाईचारा जिसे देखकर लोग गाँव का सुख अनुभव करते . वहाँ हर घर में दूध की नहर नहीं बहती थी और हर आदमी ट्रैक्टर पर नहीं घूमता था . शहर जाने का किराया बहुत लगता था . आँगन में तुलसी नहीं उगा करती थी और पीपल पर भूत रहा करते थे . गाँव के लोग अनपढ़ या कम पढ़े लिखे थे और वे शहर से आये कौन बनेगा करोडपति के किस्से सुनकर बहुत खुश होते थे . वे पुरानी कहावत सुनकर खुश रहते थे कि भारत एक कृषि प्रधान देश है .

किशोर और युवाओं का मन जब गाँव में ऊब जाता तो वे शहर से आये मुरारी के चबूतरे पर पहुँच जाते . जो शहर के स्कूल में चपरासी था . मुरारी बताते हुए खुश होता था कि उसके स्कूल में एक बच्चे की फीस चार हज़ार रुपये है और दाखिले के समय एक लाख नगद . वह एक हज़ार घर पर भेजता था और बचे हुए दो हज़ार से शहर में अपना खर्चा चलाता था .

सरकार ने रोज़गार गारंटी योजना बना दी थी . जिससे गाँव की आबादी गाँव में ही रहे . वे एक खूँटे से बँधे थे . जिसकी रस्सी का अपना एक दायरा था . वे अधिक से अधिक परिधि को स्पर्श कर सकते थे किन्तु उसके बाहर नहीं जा सकते थे . उन्हें उतनी खुराक नहीं मिलती थी कि वे रस्सी तोड़ सकें और जल्दी से आत्महत्या का उन्हें शौक नहीं था . जिंदा रहने जितनी परिधि थी .

यह एक ऐसी व्यवस्था थी, जिसके अंतर्गत इस बात का ध्यान रखा जाता था कि स्वतंत्र पशु रेंकते हुए, कीमती उग आये क्षेत्र में प्रवेश कर जाएँ और फिर उन्हें लाठियां भांजनी पड़े . अतः वे जीवित रह सकें इतना उस परिधि में रहने दिया जाता था . असंतुष्टि की भावना उत्पन्न होने से मालिकों का बर्बर रूप सामने आने का खतरा था . इससे सामजिक सौहार्दय बिगड़ने की समस्या खड़ी हो सकती थी .

हाँ, कटाई और बुआई के समय उन्हें विशेष रूप से बुलाया जाता था . उस समय वे उन कीमती क्षेत्र में परिश्रम करते स्वंय को किस्मत का धनी समझते थे . कार्य समापन पर उन्हें जाने को कह दिया जाता था . फिर भी यदि कोई रुकना चाहे तो उसे खदेड़ कर उस क्षेत्र से दूर कर दिया जाता था .

दुस्साहस करने वाले पशुओं के लिए चौकीदार रखा जाता था . जिसको बन्दूक दे दी जाती थी . उसके बूढा होने या मर जाने पर, उसी के जैसे को पुनः रख लिया जाता था . रखने के लिए सिफारिशें चलती थीं .

यह एक व्यवस्थित समाज था . जिसको संतुलित रखने की बागडोर कीमती हाथों में थी . वे हाथ वर्षों से इस कार्य में दक्ष थे . कब पुचकारना है और कब चाबुक चलाना है .

सड़क पक्की होने की घोषणा थी और घोषणा को अमल में लाने की घोषणा थी .

देहरी से आगे का मकान

>> 27 January 2011

सर्द हवाएँ जब-तब अपना सिर उठातीं और कुछ ही क्षणों बाद दुबक कर सुस्ताने लगतीं . इस बात का बिल्कुल एहसास न होता कि अभी-अभी जो बीते हैं वे वही दिन थे, जब शहर दुबका पड़ा था, गलियारे सूने पड़े थे और बच्चे अक्समात घोषित छुट्टियों को, अनायास मिले सुख के तरह भोग रहे थे .

वे फरवरी के दिन थे .

वह धूप सेंकते आँगन से अपनी साइकिल निकालती और बाहर गली में दूर तक हैंडल थामे पैदल चलती रहती, जब तक कि मेरे घर की देहरी पीछे न छूट जाती . और तब वह पैडल घुमाती हुई दूर निकल जाती . हाँ इस बीच वह पलट कर देखती, उसकी आँखें देहरी के उस पार जातीं और कुछ ही क्षणों में देहरी लाँघ कर वापस अपने तक सीमित हो जातीं .

मैं उसे दूर तक टकटकी बाँधे खिड़की से जाते हुए देखता . इस तरह कि वह मेरा देखना न देख सके . उसके चले जाने पर, उसके पीछे रह गयी उसकी इच्छा को देखता, जो अभी तक देहरी के इर्द-गिर्द मंडराती रहती . अपनी उदास आँखों से मुझे तलाशती कि मैं वहाँ हूँ या नहीं . देहरी के भीतर हूँ या उसी की तरह देहरी के बाहर . जब वह तलाशते-तलाशते थक जाती तो कुछ देर सुस्ताने बैठ जाती . वहीँ उसी गली के अंतिम छोर पर . और मैं होकर भी अपना न होना जताता रहता .

वे हमारे शीतयुद्ध के दिन थे .

कभी-कभी ऐसा होता कि वह मनु से मिलने का बहाना कर मुझसे मिलने आती . कुछ क्षण देहरी पर ठिठकी रहती, जैसे वह कोई लक्ष्मण रेखा हो, जिसको लांघने से हमारे बीच के वनवास के दिन और बढ़ जायेंगे . और उस एक क्षण मैं उसके ठिठके कदमों पर नज़र गाढ़ देता तो वह एक ही झटके में भीतर प्रवेश कर जाती . जैसे कि अभी बीते क्षण वह यहाँ थी ही नहीं - केवल मेरा भ्रम था . किन्तु वह होती, अपने में पूर्ण, मुकम्मल .

और मैं वहाँ से उठकर अपने भीतर के कमरे में चला जाता . किन्तु वह केवल दिखावा होता - बाहरी आडम्बर . अपना रूठा हुआ जताने की खातिर, किया हुआ प्रयत्न . उस एक बच्चे की तरह, जिसे जब तक न मनाओ, वह रूठा ही रहता है . यदि आप अपना ध्यान उससे हटा लेते हैं तो वह ऐसी हरकतें करने लगता है कि आपका ध्यान उस पर जाए .

वह कई-कई घंटे मनु से चिपकी रहती . उससे न बात करते हुए भी बात करती रहती . प्यास न लगने पर भी घूँट-घूँट पानी पीती . और बरामदे में रखे घड़े से मनु तक का सफ़र इतनी आहिस्ता से तय करती कि वह हिमालय की चढ़ाई चढ़ रही हो . फिर मनु से कोई ऐसी चीज़ माँगती जो केवल मेरे कमरे में हो . और तब मनु मेरे कमरे में आती, एक नज़र मुझे देखती और मैं अपनी निगाहें किताबों में गढ़ा लेता . ऐसे दिखाता कि मैंने जाना ही ना हो कि वह अभी यहाँ खड़ी है . ठीक देहरी के भीतर, मेरे कमरे में, जहाँ मैं न होना दिखाते हुए भी हूँ -किताबों से झूठ-मूठ का चिपका हुआ . जाते हुए वह कहती "कुछ चाहिए" . मैं गर्दन ऊपर उठता, उसके चेहरे को देखता और तब वह चली जाती - फिर से आने के लिए .

जब शीत युद्ध के दिन लम्बे हो जाते . तब मैं ऊबने लगता . उससे मिलने के लिए, बात करने के लिए तड़पने लगता . भीतर ही भीतर अपने पर फट पड़ता . दिल रोने को करता और अपने किए को कोसता . वह ना जाने कैसे जान जाती . जैसे उसके पास कोई यन्त्र हो, जिसे उसने मेरी परिधि के चारों और लगा रखा हो . जो मेरी पीड़ा, मेरी तड़प को भाँप लेता हो - अब कम है, अब ज्यादा . और जब वह सीमा रेखा को लाँघ जाती, तब वह आती किसी बुझती शाम को रोशन करने .

माँ कहीं बाहर होती और मनु रसोई में . वह बिना कोई आहट किए, मेरी देहरी को लाँघकर, कब मेरे सिरहाने आ खड़ी होती, पता ही न चलता . उस एक क्षण यह भ्रम होता कि वह केवल कोई बासी याद है . जब वह गुलाबी सूट पहने है और कनखियों से मुझे निहार रही है . किन्तु वह वहाँ होती - सचमुच . एक नए दिन में बीती यादों के साथ . मैं करवट बदल लेता और तब उसकी सिसकियाँ कमरे में बहने लगतीं . एक कोने से दूसरे कोने तक .

तब अगले ही क्षण हम एक दूसरे के गले से लिपटे हुए होते . लगता ही नहीं कि अभी बीते क्षण, एक हफ्ते की दूरियों को ओढ़े हुए हमने अपनी-अपनी दुनिया बना रखी थी . बीते हफ्ते का जुदा स्वाद उसके ओठों पर आ जमा होता और मैं उसे अपने ओठों से वर्तमान में ले आता . तब वे धुले-धुले से नज़र आते . गीले, चमकते हुए . अपनी नई पहचान के साथ पुनः मेरे ओठों से आ मिलते .

वे पहली मोहब्बत के दिन थे .

मन का पोस्टमार्टम !!

>> 14 January 2011

कभी-कभी एकांत स्वंय में मुझे समाहित कर लेना चाहता हैजैसे मैं स्वंय एकांत हो चला होऊँजैसे तालाब का शांत पानी अपने एकांत में मौन खड़ा रहता हैक्या यह ऊब और इच्छा के मध्य कुछ है ? या केवल एकांत में मौन का दुरूह आभासया केवल मन की छलना !

देर शाम...

राष्ट्रीय राजमार्ग पर खड़ा मैं और मेरा अपना स्वंयट्रकों की लम्बी कतार शोर मचाती बारी-बारी से जा रही हैतेज़ नुकीली हवा की कुछ कतरने त्वचा को भेदती सी, स्नायुओं में दौड़ती झुरझुरी, सिगरेट का जलना और धुएँ का हवा में पसर जानारिक्त राजमार्ग - दौड़ती, बलखाती, चमचमाती रोशनियाँ और मार्ग को रौंदती गाड़ियाँजैसे मन की रिक्त सतह पर कोई विचार चीरता सा गुजर गया हो और दिल के कम्पनों में इज़ाफा कर गया हो

कभी कभी बहुत उलझनें होती हैं, अपने स्वंय से ! इतनी व्याकुलता आकस्मिक तो नहीं


देर रात...

मन के अँधेरे में विचार जुगनू की तरह जगमगायालिखने और ना लिखा पाने के मध्य मूड का द्वन्दकलम-कॉपी सिरहाने रख, बाजुओं को तकिया बना सुस्ताता रहाएकाएक एक याद बह आयीउसका चेहरा आँखों के सामने खड़ा हुआ

अंतिम बार का मिलना, यह जानकार कि इसके बाद फिर कभी मिलना ना होगाउसका ऑटो-रिक्शा में बैठनामेरा उसके गालों को थपथपानाउसकी किनोरों का भीग जानामेरा उन्हें उँगलियों से पौंछ देना और स्वंय के गालों पर आँसुओं का लुढ़क आनाफिर उससे कहना अपना ख़याल रखना । रिक्शे का आगे बढ़ जानामेरा दूर तक टकटकी लगाए देखते रहनाऔर फिर दृश्य का अदृश्य हो जाना

लेटे-लेटे उसकी बहुत याद आई और मन बहुत उदास हो गयाजीवन जो अब विश्रंखलित है, वो होती तो अवश्य ही इसका कुछ और रूप होताउस आन्तरिक आत्मीयता का अनुभव फिर ना जाने कब होगा !

...

मन को जब अपनी दास्ताने-हयात सुनाता हूँ तो ना जाने वह कितना कुछ समझ पाता होगाऔर फिर यह ज़िक्र केवल स्वंय के लिये ही तो नहीं होता, उसकी(मन) ख़ुशी और उदासी भी तो इसमें शामिल हैमन को थपथपाया कि सो जाओ बर्खुरदारकब तक जागते रहोगेदेखा तो मन फिर ना जाने किन जानी-अन्जानी राहों की ओर भटक चला


विचार, सौन्दर्यबोधता और दुनियादारी

>> 06 January 2011

दो दिन से जाड़ा खाने को दौड़ता हैत्वचा डर कर सुन्न हुई जाती हैउस पर से तुर्रा ये कि पेट-खातिर काम को भी जाना हैअन्यथा कभी-कभी लगता है कि बंधन और अपने स्वभाव का छत्तीस का आँकड़ा हैक्या मुक्त होकर भी मुक्ति हासिल होती है ? हज़ूर तभी तरक्क़ी ना कर सके - तरक्क़ी ? तो मन के संदेह को मजबूत किया और घर पड़े रहे

रात भर नींद ग़ालिब थी और विचारों ने घेरा - जागते रहेदूर ....ते....रहो ... आवाजें आती रहींऔर स्टेशन तो जैसे सर के पास जान पड़ालगता रहा जैसे कमरे में नहीं वेटिंग रूम में सुस्ता रहे हैं और रेलें रेंगती हुई कान से निकलती रहीं

कभी-कभी सोचता हूँ - क्या मैं वही इंसान हूँ जिससे लोग इतनी आशाएँ रखते थे ! और जिन्हें अब मैं मरुस्थल में घूमता सा जान पड़ता हूँखैर कोई कब तक दूसरों के लिये जिये जाएगा - असल में तो वह मरना ही हैऔर बार-बार मरकर, अपनी तो रूह भी कराहने लगी हैसोचता हूँ थोड़े समय उसे छुट्टी दे दूँ

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कुछ रोज़ से दोस्त का फ़ोन आया करता है - उसके समय पर उसके अरमानों पर सही ना उतर पाने का मलाल रहता है - और शर्म भी महसूस होने लगती हैक्या किया जाये ? जानता तो वह भी सब कुछ हैफिर भी दुनियावी आदमी बना हैखैर वह तो बरसों से ही दुनिया को ओढ़ कर चलने लगा है - आज फिर विचार आया, पैसा बुरी बला है

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क्या इंसान सौ प्रतिशत शुद्ध रह सकता है ? लगता तो नहीं - दूसरों की अपेक्षाओं पर खरा उतर पाने की कोशिशों में अपना आप शेष ही कितना रह पाता हैशुद्धता तो दूर की कौड़ी हैएकरसता जीवन को नीरस करती जाती हैमुक्तता में सुकून अवश्य रहता होगा

मुक्त जीवन - सुकून भरे दिन और मनमाफ़िक क्रियाकलाप......आह !

काँच का शहर और रंगीन सपने

>> 04 January 2011

अपने शहर से अभी तक अपनापन नहीं हो पाया थाना जाने हम दोनों के बीच ऐसी क्या दूरियाँ थीं जो हम एक-दूसरे से यूँ अनमने से रहते रहेइस दफा जब घर को गया तो लगा जैसे वो शहर बाहें फैलाए खड़ा हैगोया कि मेरे ही इंतज़ार में हो ! अब खासा लगाव सा होने लगा हैवैसे भी जब अपने पास की चीज़ें पुरानी पड़ती जाती हैं, हमें उससे अतिरिक्त मोह होता जाता है

देखा जाए तो फिरोज़ाबाद बुरा शहर नहीं है, यहाँ सुविधायें और चमक-दमक ना सही - रोटी सबको नसीब है

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एक्सप्रेस को चीटी की चाल से चलवाते हुए और उसके एक्सप्रेस होने पर लानत भेजते हुए किसी तरह घर को पहुँचे । अबकी दफा यार लोगों ने ऐसे दुआ-सलाम की, गोया कि बरसो बिछड़ने के बाद मिले हों । खूब यारबाजी की, सड़कों की खाक छानी और सिगरेट पिये । जीने का सलीका भूलकर बेफिक्री भी अच्छी चीज़ है । चार दिन मज़े में कटे ।

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माँ को अम्मी जान कहकर पुकारने में स्वंय को अजीब ख़ुशी हासिल होती है । इस दफा सारी शर्मो-हया ताक़ पर रखकर बेशर्म बनकर जिये । माँ से गप्प मारते रहे, उनकी बचपन की छोटी-छोटी बातें सुनते रहे । और जब वे शांत हो जाती तो याद दिलाते अरे हाँ -तब क्या हुआ था अम्मी जान जब आप वहाँ थीं या कि जब आप ब्याह कर आयी थी तो कितने लोगों के लिये चक्की पीसनी होती थी । या कि जब आप अपने बचपन की दोस्त से रूठ जाया करती थीं तो कैसे निभती थी ।

माँ का जीवन भी कितना निस्वार्थ है, जैसे स्वंय का कुछ है ही नहीं-जो कुछ है हम सब के लिये, घर के लिये । वे उसी में इतनी खुश दिखती हैं । स्थिर, शांत, डेडिकेटेड और स्वंय के त्याग के कहीं कोई चिन्ह नहीं । सच में माँ बहुत बड़ी हैं - बहुत बड़ी ।

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बीते दिनों में आये जमा मेल भी क़र्ज़ का सा एहसास कराते हैं । किसको-किसको जवाब लिखूँ और क्या ? ना जाने क्यों लोग रस्म अदायगी करते रहते हैं गोया कि हम जानते ही ना हों कि नया साल आ गया है । और न जाने किस बात पर इतना खुश हो लेते हैं ? कोई लौटरी लग गयी या दुनिया बदल गयी ? खैर, अपनी तो नहीं लगी ।

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बरसों से स्मृतियों में कैद छोटी-छोटी घटनायें, जो वक़्त के साथ-साथ और अधिक मैच्योर होती जाती हैं - को लिखने में अजीब नशा सा आता है । जैसे कि चार गिलास बीयर पीकर स्वंय को हल्का महसूस करने लगा होऊं ।
सुनसान पड़ी सडकें भी खासा आकर्षित करती हैं-खासकर रात में यूँ ही निकल पड़ना खासा सुकून देता है । तो दिली ख्वाहिश को अंजाम देने दोस्त को साथ लिये चल दिये (अकेले तो हरदम चलते हैं !) । काफी देर तक जिंदगी और समझदारी की बातें होती रहीं । समाज और दुनियाँ की समस्याएँ नहीं सुलझीं - लौट आये । मिलकर सिगरेट पिये और फिर उसको बिस्तर तक पहुँचा कर खुद जागते रहे । ये लिखने और जागते रहने का मर्ज़ हमने ही अपनी जान को लगा रखा है । नहीं तो देखो दुनिया घोड़े बेच कर, अपनी-अपनी रजाइयों में दुबकी पड़ी है ।

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