अपनी इच्छाओं की महक जिंदा रखा करो जान

>> 30 August 2011

-> रेलवे ट्रैक को चीरकर धड़धडाती हुई जाती रेलें. रिमझिम रिमझिम होती बारिश. और छतरीनुमा प्लेटफोर्म की बैंच पर बैठा मैं. कितना हल्का, कितनी राहत. देखा जाए तो रेलवे स्टेशन जैसी शांत जगहें दुनियाँ मैं बहुत कम हैं. तमाम ध्वनियों के मध्य भी हम स्वंय के कितने पास होते हैं. कई रोजों बाद अपने आप के इतने पास हूँ . लगता है जिस उर्जा की आवश्यकता मुझे हरदम रहती है. वह मुझे अपने एकांत में ही मिलती है.

-> ठंडी हवा जब गालों को छूती है तो शरीर में एक लहर दौड़ जाती है. तुम्हारी बहुत याद आती है. तुम साथ होतीं तो यहाँ का मौसम और भी खूबसूरत हो जाता. तुम्हारे हाथों का स्पर्श, तुम्हारे गालों को छूते उड़ उड़ कर आते बाल और रह रह कर अपनी उँगलियों से तुम्हारे कानों के पीछे धकेलता मैं.

-> तुम अपने जिस्म में एक दिया जलाओ, एक दिया मैं अपने जिस्म में जलाऊँ. हमारे अँधेरे जंगल में रौशनी हो जाएगी. फिर हम इस जंगल को आसानी से पार कर लेंगे.

-> अपनी इच्छाओं की महक जिंदा रखो. तुम्हारी इच्छाओं के दीयों से ही मेरी जिंदगी रौशन रहेगी. नहीं तो मेरा यह जिस्म एक अँधेरा जंगल है. मैं अपने ही अँधेरे में गुम हो जाऊंगा.

-> मुझे याद है कि बचपन के अपने उन दिनों में जबकि मौहल्ले की बत्ती चली जाती थी और घर अँधेरे में डूब जाया करते थे. तब 'पोशम्बा भाई पोशम्बा, डाकुओं ने क्या किया' के स्वर गूंजने लगते थे. न जाने क्यों आज मुझे अपने वे दिन स्मृतियों में महक पैदा करते दीख रहे हैं. न जाने कल को इसी तरह का कोई और दिन फूल बनकर खिल जाए.

-> तब हम बड़े होने के लिए ईश्वर से कितनी जिदें किया करते. लाख मिन्नतों पर भी वह हमारी एक न सुनता और हमारी फ़रियाद को टालता जाता. हमारे गुस्से पर भी हमे एक-एक करके कितनी सौगाते देता रहता. किन्तु हम अपनी जिदों के कॉलर खड़े किये रहते. इस पर भी उसने हमे ठंडी हवा की थपकियाँ दे कर बहलाया. फिर भी जब हम ना माने तो एक रोज़ हमें बड़प्पन के रेगिस्तान में छोड़ गया. जो न तो ख़त्म होने का नाम लेता है और ना ही दूर तलक किसी पेड़ की छाँव दिखाई पड़ती. या मेरे मौला बच्चे की जिद पर नाराज़ नहीं हुआ करते. बच्चे को बच्चा ही रहने दो न.

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जाति प्रथा, आरक्षण, आर्थिक पिछड़ापन, वैचारिक पिछड़ापन और बराबरी की बातें

मैं अक्सर देखता और सुनता हूँ कि आरक्षण के मुद्दे पर वो वर्ग जिसकी वजह से आरक्षण की नौबत आई बहुत ज्यादा बेचैन हो उठता है. कभी कोई स्टेटस ठेल रहा है, कभी कोई स्टेटस फॉरवर्ड कर रहा है, कभी कोई फ़ोटो शेयर कर रहा है. लेकिन कभी जाति प्रथा को समाप्त करने के लिए इस वर्ग ने कभी कोई स्टेटस न तो लिखा और न ही फॉरवर्ड किया. एक नार्मल मनोरंजन वाले स्टेटस पर आपको इतने लाइक मिल जायेंगे और यदि आप जाति प्रथा से सम्बंधित कोई लेख, कोई फ़ोटो, कोई स्टेटस डालेंगे तो मज़ाल है कि उतने लाइक या कमेंट मिल जाएं.

यह है मानसिकता जो हज़ारों सालों से वहीँ की वहीँ जमी हुई है. उखड़ने का नाम ही नहीं लेती.

मैं अपने उन साथ में पढ़ने वाले लड़कों से पूंछना चाहता हूँ कि तुम्हारे साथ पढ़ने वाले उस वर्ग के सभी के सभी 75% लड़के क्या मुझसे बेहतर थे. मैं किसी एक का नाम नहीं लेना चाहता किन्तु क्या वो फलाना लड़का क्या मुझसे हर मामले में बेहतर था. क्या ज्यादातर वे 75% लड़के कोचिंग करके नहीं आये थे. और शेष 25% बामुश्किल कोई कोई ने कोचिंग की शक्ल देखी होगी.

और आप खुद जानते हैं कि उन 75% में से बहुत से कान्वेंट और प्राइवेट स्कूल के पढ़े हुए थे. कुछ की अंग्रेजी दूसरों को inferiority complex पैदा करने के लिए काफी थी. और आप चाहते हैं कि आपके उन अस्त्र शस्त्रों से निहत्ते लोग लडें और जीत जाएं.

आपकी जाति प्रथा को ख़त्म करने की ललक तो उसी दिन दिख गयी थी जब आपमें से ही एक लड़का अपने बचपन से लेकर बड़े होने तक के संस्कारों के साथ शराब पीकर 'चमार' शब्द का हीनता के साथ प्रयोग कर रहा था. और दरवाजे पीट पीटकर गालियाँ बक रहा था. तब आपमें से कोई आगे नहीं आया. आपने उसको 25% के क्रोध से बचाने के लिए एक कमरे में बंद कर लिया था. आपने बाद के दिनों में भी कभी उसको नहीं समझाया कि उसने जो किया वो गलत था. उसकी सोच गलत है. वो अपने में सुधार कर ले.

उन 75% में से ज्यादातर जिनके पहले से नाते रिश्तेदार कंपनियों में बैठे हैं और जिनके नंबर, जिनका ज्ञान मुझसे कितना दूर था. वे सबके सब उन्हीं कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं. कोई क्षेत्रीयता की दुहाई देकर तो कोई जाति का उपयोग कर सबके सब चिपक गए. तो आप बताइये मेरे उनसे ज्यादा नंबर, ज्यादा ज्ञान किस काम का हुआ.

और आप जो दलितों, आदिवासियों के जलाये जाने, उनका शोषण किये जाने, उनकी बेटी बहुओं का बलात्कार किये जाने, उनको उनकी ज़मीनों से बेदखल किये जाने को एक सामान्य प्रक्रिया मानते चले आ रहे हैं और मान रहे हैं तो आप ये जान लीजिए कि आप कहीं से भी बराबरी की बात न तो सोच रहे हैं और ना ही कर रहे हैं.

न तो आप खबरें पढ़ते और ना ही उन ख़बरों का कोई संज्ञान लेते जिन ख़बरों को हमारी मेन स्ट्रीम मीडिया कभी नहीं दिखाती.

तो माफ़ करना आपके द्वारा आरक्षण के विरोध में स्टेटस ठेलना, फ़ोटो शेयर करना या किसी और की स्टेटस को शेयर करना मुझे आपके द्वारा कहीं से भी सभी को बराबरी पर लाने की बात नहीं लगती.

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हथेलियों में फूलों सी ताजगी, पवित्र प्रेम की नदी

>> 29 August 2011

-> कई विचार जुगनुओं की तरह जगमगाते हैं और फिर बुझ जाते हैं. मैं उन्हें पकड़ने के कई प्रयत्न करता हूँ. इन तमाम जुगनुओं में कभी कोई जुगनू हाथ आया तो आया. नहीं तो यह खेल चलता ही रहता है. सुबह के उजाले में जब यही जुगनू तितली बन जाते हैं तो कितने लुभावने हो जाते हैं. मैं अपनी हथेलियों को पसार देता हूँ किन्तु तब भी हर तितली कहाँ मेरी हथेली पर आकर बैठती है. या तो रात का अँधेरा ज्यादा लम्बा हो जाए तो मैं जुगनुओं को पकड़ सकूँ या मेरी हथेलियों में वह फूलों सी ताजगी आ जाए कि हर तितली उस पर आ बैठे.

-> ना जाने क्यों अपने गले में तौक लगाये जिंदगी घंटों के बावस्ते गुजरने से मन दूर भागता है. इस स्वछन्द मन की अभिलाषाओं की उड़ान उड़ना चाहता हूँ. मन माफिक क्रियाकलाप करने से जीवन के आर्थिक और सामजिक उद्देश्यों की पूर्ती हो जाए तो कितना अच्छा हो. अपने मन की अभिलाषाओं के पूर्ण संसार में तसल्ली की साँस लेना चाहता हूँ. मेरी जो रचनात्मक एवं भावनात्मक नदियाँ हैं, उन्हें में लबालब बहते हुए देखना चाहता हूँ. इतना कि वे कम से कम मेरी अपनी बंज़र जमीन में फूल खिला सकें.

-> मैं जानता हूँ कि प्रेम में यह रेतीले रेगिस्तान भी आते हैं और उनका आना तय है. जो थकाने और दिशा भ्रम के लिये बने होते हैं. कई कई बार वे हमें लू के थपेड़े देते हैं, ज़बान सुखा देते हैं और फिर पानी की बूंदों का धोखा देते हैं. मेरे मन की श्रृद्धा मुझे एक पल के लिये भी विचलित नहीं होने देती. मेरी सबसे बड़ी प्यास प्रेम में मिलने वाले आँसुओं की है, जो हमारे मिलने पर ख़ुशी से छलक उठेंगे. यह रेगिस्तान चाहे कितना भी लम्बा हो, मैं इसे पार करूँगा और अपने पवित्र प्रेम की नदी को हासिल करके रहूँगा.

-> कौन सही है, कौन गलत है. इन प्रश्नों के उत्तर हम कब तक माँगते रहेंगे. हम आखिर स्वंय से कब तलक धूप छाँव का खेल खेलते रह सकेंगे. हम जिस दुनिया में रहते हैं उसके सापेक्ष जरुरी तो नहीं कि हमें हमारे उत्तर मन मुताबिक़ मिलें. क्या यह मुनासिब नहीं कि हम उस बाहरी संसार और उसके लोगों से उम्मीदें करना छोड़ दें. आवश्यक तो नहीं कि हर कोई उन प्रश्नों के संसार में प्रवेश करे, उसे जिए और तब आप जिन सन्दर्भों में उनके उत्तर चाहते हैं, उनके उत्तर दे.

-> हमारे अपने अनुभवों के संसार में केवल हम स्वंय जीते हैं. उस संसार के रचयिता हम स्वंय होते हैं. हम लाख चाहें भी तो किसी अन्य को अपने उस संसार की ऊष्मा से परिचित नहीं करा सकते. उसके दुःख, पीड़ा, ख़ुशी, भावनाएं केवल हमारे अपने लिए होती हैं. दूसरों के लिए वह एक अलग संसार है. वह उसके बारे में जान सकता है, पढ़ सकता है, सुन सकता है किन्तु उसे महसूस नहीं कर सकता. ठीक वैसे ही जैसे बच्चे पढ़ा करते हैं किताबों में किसी अन्य ब्रह्माण्ड को.

-> आज इंसान बने रहने की शर्तें दुनिया ने जितनी महँगी कर दी हैं. वह निश्चय ही इंसानियत को दुर्लभ कारकों में शामिल कर देगा. कारक जो दुनिया में शांति और सौम्यता बनाये रखते हैं. इस पूरे बदलते परिदृश्य में मनुष्यता पर गहरे संकट छाते जा रहे हैं. मेरे वे सभ्य दोस्त जिनके कारण मनुष्यता कायम है. उनके अपने ही घरों में अशांति, दुःख, पीड़ा ने प्रवेश पा लिया है. कितना अच्छा होता कि अपने इंसान बने रहने के साथ साथ हम दूसरों की इंसानियत का कुछ हिस्सा भी बचा कर रख पाते.

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डायरी 28.08.2011

निपट सूनी दोपहर के बाद जब यह डूबती शाम आती है तब मन में रिक्तता का और भी अधिक आभास होता है. दूर पेड़ों के झुरमुट से पंक्षी एक एक कर निकल उड़ते हैं और धीमे धीमे एक समूह बना लेते हैं. ना जाने किन स्थानों पर उड़ कर जाया करते हैं. निश्चय ही उनके बनाये अपने घर होते होंगे. मेरा ना जाने क्यों उस सूने एकांत कमरे में लौटने का मन नहीं होता. मैं चाहता हूँ एक घर जिसे अपना घर कह सकूँ. जहाँ प्रेम हो, रूठना हो, मनाना हो, इंतजार करती हुई साथी हो जो मेरे देर से पहुँचने पर मुझसे झगडे. फिर मैं उसे अपना प्यार जताकर मनाऊँ.

वह जब ऑटो से उतरती है और फिर उसकी निगाहें मुझे तलाशने लगती हैं. तब उस एक पल को मैं भूल जाता हूँ कि अभी जो इस एक पल से पहले में यहाँ खड़ा था वह मेरा अपना ही एक सत्य था. जब हर ऑटो, हर वैन में मेरी नज़रें भीतर प्रवेश कर जाती थीं और मैं हर उस यात्री के पड़ोस में झांकता था जहाँ वह मुझे बैठी नहीं मिलती थी. हर एक नए पल में घडी की सुइयों का टिकटिकाना महसूसता था. और लगता था कि आज यह मुई इतनी सुस्त क्यों चल रही है. यह जानते हुए भी कि अभी उसके आने में देर है. मैं स्वंय को सड़क पर भागती-दौड़ती गाड़ियों की कतारों में उलझा लेता था.

इन दिनों ज़बान को एक नया रोग लग गया है. मुई दिमाग का साथ देना कभी कभी छोड़ देती है. लम्बे समय तक यदि किसी से फोन पर बात करता रहूँ तो इसके फिसलने के खतरे बढ़ जाते हैं. जब यह आभास दिल को अधिक होने लगता है कि यह अपनी लय छोड़ चुकी है तब वार्तालाप को विराम देने का मन हो आता है. नहीं तो कब किसी के सामने यह प्रेम प्रदर्शन करने लग जाए इसका अंदाजा लगाना मुमकिन नहीं. आज ही सुबह से शाम तलक दो बन्दों से "आई लव यू" कहते कहते बचा हूँ. कहीं किसी रोज़ इसका यह स्वाभाव मेरे सिर के लिए आफत मोल ना ले बैठे.

भूगोल ने मेरे संसार में उथल पुथल मचा दी. शिशुत्व से अब तलक इस विषय में मेरी कभी दिलचस्पी नहीं रही. हमारा सदैव छत्तीस का आंकड़ा रहा. और अब इतने बरसों बाद उसने अपने पुराने बही खाते खोल लिए हैं. और कह रहा है "बच्चू जिंदगी कोई आसान शह नहीं". यह मेरा अपना एक निजी सत्य है कि मुझे यदि कहीं खड़ा कर दिया जाए और पूँछा जाए कि पूरब किधर है और पश्चिम किधर. तो मैं खुद में ही भटक जाऊं. और आज वही पूरब-पश्चिम मुझे नाकों चने चबा रहे हैं. वाह रे भूगोल तेरी लीला अपरम्पार है. मुझे बख्श दे मेरे भाई. पुरानी बातों पर मिट्टी डाल.

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Diary 27.08.2011

-> सड़क के किनारे लगे खोखेनुमा दूकान पर चाय सुदक रहा हूँ. कमीज़ की जेब में शाम 06:20 के शो की टिकट रखी हैं. आज ना जाने क्यों इतनी बेतकल्लुफी छाई है. घर को ना जाकर यूँ सड़क पर धुल उड़ाने को आमादा हैं. निश्चय ही घर पर कोई इंतज़ार में बैठा होता तो कदम यूँ बेफिक्री ना दिखाते. सोचता हूँ एक और चाय गले से उतार लूँ उसमें किसी का क्या जाता है.

-> आज दोपहर भर सड़क की खाक़ छानता रहा. होने को ऐसा कुछ होना तय नहीं था किन्तु उस बीच इतना भर हो पाया कि शऊर आ जाने के लायक किताब खरीद लाये. और जब भूख मुँह को आ गयी तो ठेले पर निवाले पेट में डाले. सोचता हूँ शऊर आते-आते आ ही जायेगा. इस सबके बीच तुम्हारी बहुत याद आयी. वे सडकें तुम्हारे साथ चलने की आदी हो गयी हैं.

-> दूर कहीं से झींगुरों के स्वर मिश्रित होकर गूँजते हैं. कभी पास तो कभी दूर. यहाँ के घर अँधेरे में दुबके जान पड़ते हैं. लोग अपने-अपने घरों की सरहदों के पार निकल आये हैं. और मैं छत पर चारपाई बिछाए औंधे पड़ा हूँ. फिर आकाश देखता हूँ तो कभी उसमें फैले टिमटिमाते तारों की दुनिया. रह रह कर तुम्हारी शक्लें उभर आती हैं. अपनी आँखें मूँद लेता हूँ तो तुम और भी पास चली आती हो.

-> प्रेम होने भर के लिये नहीं होता. ना ही वो होता इतिहास रचने के लिये. वह होता है दिलों की सच्चाइयों को जिंदा रखने के लिये. वे जो चाहते हैं सच्चाइयों को झुठलाना. उन्हें प्रेम कभी पसंद नहीं आता. किन्तु सच्चाइयाँ कभी नहीं मरती. प्रेम बचा रहेगा हमेशा किसी जीते हुए सच की तरह.

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डायरी 23.08.2011

>> 24 August 2011

-> पंक्तिबद्ध खड़े सुस्ताते हुए ये पेड़ ऐसे प्रतीत होते हैं मानो दिन भर के थके मांदे हों और अब डूबती शाम को स्वंय को हल्का कर लेना चाहते हों. निश्चय ही क्या उन्हें थकान का अनुभव नहीं होता होगा ? जीवन तो उन में भी है. और हम जो सांस ले रहे हैं वह उनकी ही तो देन है. वे केवल देने के लिए बने हैं.

और हम ?
क्या केवल इस पृथ्वी को भोगने के लिए ही आये हैं.

मैं जब इन पर बारिश की बूंदों को गिरते हुए देखता हूँ तो उन पत्तियों पर रखी मोती सी बूंदों को छू लेने के लिए आतुर हो जाता हूँ. उन्हें छूकर शरीर में एक सुखद लहर दौड़ जाती है. आत्मिक सुख की अनुभूति शायद इसे ही कहते हों.


-> लिखने और ना लिख पाने के मध्य मानसिक द्वन्द चलता ही रहता है. फिर यह केवल मेरे अपने स्वंय के मन का ही सत्य तो नहीं. मेरी जो रचनात्मक जरूरतें हैं, उनका दुनियावी जरूरतों से सामंजस्य स्थापित कर पाना न केवल आवश्यक है बल्कि जीवनगत सच्चाई है.

मेरे अपने होने में और उसका शुद्ध बने रहने के बीच बस केवल एक फाँक है. इस पार से उस पार होने में कितना कुछ बदल जाता है. और बदलने के लिए तैयार रहता है. परिवर्तन जीवन के रहस्यों में से एक कटु सत्य है. मैं केवल अपने होने को बचाए रखना चाहता हूँ. बुद्धिशीलता में परिवर्तन आवश्यक हैं.

->प्रेम जिस पर ना जाने कितना लिखा गया है और कितना लिखा जाना शेष है. हर नई पीढ़ी ने इसे अपने शब्द दिए हैं. और अपने एहसासों को उन में पिरोया है. फिर भी जो लिखता है वह जीवन पर्यंत यही महसूसता है कि इस से सरल कोई शब्द नहीं किन्तु वह अपने जिन कौमार्य एहसासों को बयान करना चाहता था वह अभी भी कहना शेष है.

और वह शेष बना ही रहता है.

मैं जो प्रेम के अबाध सागर में डूबता, तैरता और उतराता रहता हूँ. आज उसी शेष के सिरे पर खड़ा हूँ. इस अपरिभाषित प्रेम के इस शेष सिरे को कितना आगे ले जा सकूँगा. मैं प्रेम में हूँ या प्रेम मुझ में. यह उलझ गया है.

-> चारों ओर काले बादल छाये हुए हैं. रह रहकर ठंडी हवा चलती है तो पेड़ों की पत्तियां हिलने लगती हैं. एक पल को लगता है कि वे सामूहिक नृत्यगान कर रहे हैं. फिर हवा का एक झोंका गालों को छू जाता है. स्नायुओं में झुरझुरी दौड़ जाती है. फिर बादल गरजता है, एकाएक बिजली चमक उठती है.

बारिश की बूँदें अपनी लय में गिरती ही जाती हैं. ऐसा लगता है मानों प्रकृति आज उत्सव मना रही है और मैं वह मूक दर्शक हूँ जो केवल उसका आनंद ले सकता है. मैं इस सृष्टि की रागात्मक प्रवृत्ति से भाव विभोर हूँ.

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होना, होते रहना

>> 11 June 2011

-तुम मुझे बिल्कुल भी अच्छे नहीं लगते ।
-बिल्कुल भी नहीं ?
-ह्म्म्मम्म .....बिल्कुल भी नहीं ।
-इत्ता सा भी नहीं ?
-अरे कहा ना बिल्कुल भी नहीं फिर इत्ता सा कैसे कर सकती हूँ ।
-"मैं सोच रहा था कि इत्ता सा तो करती होगी ।" कहते हुए मैं मुस्कुरा जाता हूँ ।

वो उठकर चल देती है । मैं सिगरेट फैंक देता हूँ और उसके पीछे चलने लगता हूँ ।
-अच्छा बाबा मान लिया कि तुम इत्ता सा भी प्यार नहीं करती । अब ठीक ....खुश

वो आगे बढ़ते हुए पत्थर उठाकर नदी में फैंकते हुए कहती है "तुम सिगरेट पीते हुए बिल्कुल भी अच्छे नहीं लगते । "
-बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता क्या ?
-नहीं, बिल्कुल भी नहीं
-अच्छा तो ठीक है, कल से बीड़ी पीना शुरू करता हूँ ।
-ओह हो...तुम ना...करो जो करना है मुझे क्या ?

मैं मुस्कुरा जाता हूँ ।
-हाँ, तुम्हें क्या ? देखना कोई मुझे जल्द ही ब्याह के ले जायेगी और तुम बस देखती रहना ।

वो खिलखिला कर हँस पड़ती है ।
-जाओ जाओ बड़े आये ब्याह करने वाले । कौन करेगा तुम से शादी ?
-क्यों तुम नहीं करोगी ?
-मैं तो नहीं करने वाली ।
-क्यों ?
-क्यों, तुमने कभी कहा है कि तुम मुझसे शादी करना चाहते हो ।

मैं मुस्कुराते हुए कहता हूँ -
-क्यों, कभी नहीं कहा ?
-चक्क (अपनी जीभ से आवाज़ निकलते हुए वो बोली)
-कल, परसों या उससे पहले कभी तो कहा होगा (मुस्कुराते हुए)

वो नाराज़ होकर चल देती है ।
-"अच्छा ठीक है । नहीं कहा तो अब कह देता हूँ ।" (मैं उसका हाथ पकड़ कर रोकते हुए कहता हूँ )

मैं उस बड़े से पत्थर पर चढ़ जाता हूँ और कहता हूँ
-सुनो ए हवाओं, ए घटाओं, ए नदी, पंक्षियों और हाँ पत्थरों । मैं अपनी होने वाली बीवी से जो मुझे इत्ता सा भी प्यार नहीं करती और जिसे मैं इत्ता सा भी अच्छा नहीं लगता, बहुत प्यार करता हूँ । मैं उससे और सिर्फ उसी से शादी करना चाहता हूँ । (कंधे ऊपर करते हुए मैं उसको देखकर मुस्कुराता हूँ !)
-होने वाली बीवी ? (वो बोली )
-हाँ (मुस्कुराते हुए )
-तुम ना टूमच हो कहते हुए वो मुस्कुरा जाती है ।

वो चल देती है । मैं पीछे चलते हुए सिगरेट जला लेता हूँ । वो पीछे मुड़कर देखती है और पास आकर सिगरेट छीनकर फैंक देती है । प्यार से "आई हेट यू" जैसा कुछ बोलती है ।

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किताब की नायिका एवं महत्वपूर्ण पात्र

>> 21 May 2011


मैं जब उनसे मिला था, तब सर्दियों के दिन थे. तब शुरू के दिनों में वह मेरे लिए अन्जाना शहर था. बाद छुट्टी के मैं रेलवे ट्रैक के किनारे बैठा सिगरेट फूँका करता था. और जब मन बेहद उदास हो जाया करता, तब मैं वापस अपने कमरे पर जा किसी उपन्यास के पृष्ठ पर निगाहें गढ़ा लेता. और विचार के खंडहरों में बेहद अकेला घूमता रहता.

वे सब एक-एक करके मेरी जिंदगी में आये या यूँ कहूँ कि उनकी जिंदगियों में मैं आया. कभी-कभी ऐसा होता है कि दुनियावी रौशनी में कोई एक शख्स आपको अलग ही रौशनी में नहाया दिखाई पड़ता है. उस झूठ के संसार में सच का दिया जलाए रखने वाला शख्स. वह हर उन पलों में आपको बेहद करीब और अपना लगता है, जितना आप उसे जानने और समझने लगते हैं.

वे तीनों मेरी जिंदगी के आकाश में गए बेशकीमती सितारे हैं. उन्हें पा लेने जितना हुनर मुझे नहीं आता, वे तो स्वंय ही मेरी किस्मत के दामन में गए. कैसे, क्यों और किस तरह से यह सब हुआ, इतना जानने समझने का वक़्त ही नहीं मिला. बहरहाल....

वे मेरी जिंदगी की किताब के बेहद महत्वपूर्ण पात्र हैं. उनके बिना यह किताब लिखी ही नहीं जा सकती. हाँ उनके होने से यह किताब अनमोल अवश्य हो जाती है.

प्रथम पात्र :

उनकी उम्र रही होगी यही कोई पैंतीस-सैंतीस साल. हाँ बाद के दिनोंमें जब उनका जन्म दिन आया तो उनकी उम्र में एक-आध बरस का इजाफा और हुआ होगा. बहरहाल......

सवाल उम्र का नहीं-समझ और विचारों का है. वे पहली नज़र में ही समझदार और सुलझी हुई महिला नज़र आती हैं. हाँ, जैसे-जैसे आप उनके करीब पहुँचते जाते हैं, और वे आपको मित्र के रूप में अपना लें तो उनके दिल की गिरहें खुलती चली जाती हैं. और उनके दिल में रह रही तमाम उलझनें आपसे रू--रू होने लगती हैं. हाँ इसके लिए आपका इंसान होना आवश्यक है. नहीं तो आप उनके दिल के बाहर खड़ी दीवार तक भी पहुँच सकें, ये आसान जान नहीं पड़ता.

वे दिमाग से सुलझी हुई और दिल से बेहद उलझी हुई स्त्री हैं- ऐसा मैंने हमारी पहचान के बाद दिनों में कहा था. और वे मुस्कुरा उठी थीं.

उनमें चुम्कीय आकर्षण है. जो आपको खींचे ही चला जाता है. जितनी वे बाहर से खूबसूरत दिखती हैं, असल में उससे कई गुना वे दिल से खूबसूरत हैं. किसी एक रोज़ मैंने उनकी आंतरिक खूबसूरती के मोहवश उनसे कहा था. यदि आप मेरी हम उम्र होतीं तो शायद मैं आपके प्रति प्रेमिका रूपी मोह में पड़ जाता. तब उन्होंने अपने मन के बेहद कोमल कोणों से इस बात को जाना और समझा था. और हम करीब से करीब गए थे.

वे मेरी बेहद प्रिय मित्र हैं. मेरी जिंदगी में उनका निजी और महत्वपूर्ण स्थान है.

जब वे साहित्यिक चर्चाएँ करती हैं, तब बेहद अच्छी लगती हैं. तब लगता ही नहीं कि हमारी उम्रों में एक दशक का फासला है. वे एकदम से अपनी उम्र से दौड़कर मेरी उम्र की सीमारेखा को भेदती हुई, मन की आंतरिक सतह को स्पर्श कर लेती हैं.

नवम्बर के वे बीतते दिन मेरे दिल की डायरी में सदैव जीवित रहेंगे. जिन दिनों में वे मेरी जिंदगी का अहम् हिस्सा बन गयी थीं.


किताब की नायिका :

इस शहर ने मुझे वो सब कुछ दिया, जिसके वगैर मेरी जिंदगी अधूरी थी.

दिसंबर के उन निपट निर्धन दिनों में उसने मेरे दिल पर दस्तखत किये थे. और एकाएक ही मेरी जिंदगी मुझे बेशकीमती लगने लगी थी. जो भी हो, उससे पहले मुझे जिंदगी से रत्ती भर भी प्रेम नहीं था.

सच
कहूँ तो ये वे दिन थे, जब उसको हमेशा के लिए पा लेने की चाहत ने दिल में जन्म ले लिया था. मेरे मन की निर्ज़ां घाटियों में वह इन्द्रधनुष बनकर छा गयी थी.

वो मेरी उम्र का दस्तावेज़ है . जिसका हर शब्द हमारी मोहब्बत की स्याही से लिखा गया है।

तब तलक मैं अपनी जिंदगी के प्रति जवाबदेह नहीं था. जब वह मेरी जिंदगी में आई, मेरे मन ने मुझसे जवाब मांगने प्रारम्भ कर दिए थे. क्या मैं इन लम्हों को यूँ ही ख़ामोशी से बीत जाने दूँगा ? क्या जो हो रहा है, या होना चाह रहा है, उसका ना होना जता कर, इस सबसे अंजान बना रहूँगा ?

और तब मेरे अपने स्वंय ने आवाज़ दी थी - नहीं

तभी मन में उस चाहना ने जन्म ले लिया था. जिसका दायरा उसी से प्रारम्भ होता और उसी पर ख़त्म. उन्हीं दिनों मन में एक ख़याल आया-
"उसकी मासूमियत और सादगी पर मैं अपनी जान दे सकता हूँ"

लेखन मेरे लिए प्रथम था, शेष सुखों के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं. उन्हीं बाद के दिनों में मुझे यह आंतरिक एहसास हुआ - जाने कबसे वह मेरे प्रथम के खांचे में जा जुडी है.

बावजूद इसके कि हमारे मध्य महज़ औपचारिक बातें हुई थीं. वह भी बामुश्किल दो-चार दफा. किन्तु उसके होने मात्र से वह आंतरिक चाहना मन की ऊपरी सतह पर तैरने लगती थी. और मैं उसके प्रेमपाश में हर दफा ही, उसकी ओर खिंचा चला जाता रहा.

तब मुझे इतना भी ज्ञात था कि वह मेरे बारे में कितना कुछ वैसा ही सोचा करती है, जितना कि मैं. हाँ, केवल इस बात का भरोसा होने लगा था कि वह इंसानी तौर पर मुझे पसंद अवश्य करती है. कभी-कभी उसकी आँखों से प्रतीत होता कि इनमें कितना कुछ छुपा है. वो सब जो शायद मैं नहीं देख पा रहा, या शायद वो सब जो वह दिखाना नहीं चाहती.

वे ठिठुरती सर्दियों के ख़त्म होने वाले जनवरी के दिन थे. जब उसकी आँखों में मैंने अपने लिए चाहत पढ़ी थी. फिर जब-जब वह मेरे सामने आई, उन सभी नाज़ुक क्षणों में मेरे मन में प्रेम का अबाध सागर उमड़ पड़ता. जो सभी सीमारेखाओं को तोड़ता हुआ उसको अवश्य ही भिगोता रहा होगा. बहरहाल.......

फरवरी और मार्च के मिले जुले गुलाबी दिन बीत चुके थे. और मैं अपने दिल की बात, दिल में ही कैद करके रहता था. और वो जानती थी कि किसी एक रोज़ मैं उससे अवश्य कहूँगा- "तुम मेरी जिंदगी की किताब की नायिका हो"

उन दिनों उसकी आँखें बेहद उदास रहने लगी थीं. जबसे उसे पता चला था कि मैं इस कार्यस्थल को छोड़कर चले जाने वाला हूँ. उसकी गहरी उदास आँखों में मैं डूब-डूब जाया करता था. मन बेहद दुखी था और एक अजीब रिक्तता ने मुझे घेरा था. कई-कई बार मैंने उससे कुछ कहना चाहा और हर बार ही मेरे अपने स्वंय ने रोके रखा.

वे मार्च के बेहद उदास दिन थे.

मेरे लिए तब वह आत्मिक संघर्ष का दौर था. मन में संशय उपजता था कि कहीं यह खाली हाथ रह जाने के दिन तो नहीं और फिर अगले ही क्षण मैं मन को थपथपाता, समझाता और बहलाता. किन्तु वह केवल मुस्कुरा कर रह जाता. शायद कहना चाहता हो -"बच्चू इश्क कोई आसान शह नहीं"

और हुआ तब यह था कि अंततः जब वह स्वंय की भावनाओं पर नियंत्रण ना रख सकी थी . तब एक रोज़ वह मेरी दी हुई किताबों को मुझे वापस देने चली आयी थी.

वे बेहद भावुक क्षण थे.

वह मेरे इतने करीब थे, जितना कि पहले कभी नहीं रही थी. उसकी भावनाएं उसके चेहरे पर लकीर बनकर उभर आयी थीं. वह मेरे चले जाने की खबर से बेहद खफा थी- जबकि अब तक मैंने उससे अपनी भावनाओं को साझा भी नहीं किया था. शायद बात यही रही होगी. यहीं आत्मिक पीड़ा उपजती है. और मैं उस क्षण उसकी पीड़ा को महसूसने लगा था.

मैंने उससे इतना ही कहा था-"इन किताबों को वापस क्यों कर रही हो? इन्हें तो मैंने पढने के लिए ही दिया है" और तब उसने कहा था "जब आप ही जा रहे हैं, तो इन किताबों को मेरे पास छोड़कर चले जाने की कोई वजह नहीं बनती. मुझे नहीं पढनी आपकी किताबें."

हमारे बीच गहरी ख़ामोशी छा गयी थी.

फिर जाने कैसे मेरे दिल से ये शब्द निकले थे "तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो"
और उसने कहा था "जानती हूँ"

उसका चेहरा तब खिल उठा था.

फिर बीते दिनों की उसको हाथ देखने की बात याद हो आयी थी. जब उसने पूँछा था "क्या देख रहे हो ?" और मैंने टाल दिया था कि "फिर कभी बताऊंगा, वक़्त आने पर."

उसने जानना चाहा "उस रोज़ हाथ में क्या देख रहे थे" तब मैंने गहरी सांस ली थी और कहा था "तुम ही वो लड़की हो जिसके साथ मैं जिंदगी भर खुश रहूँगा."
शायद वह जान गयी होगी यह उन लकीरों की नहीं, मेरे दिल की आवाज़ है.

मेरी इस बात पर वह खिलखिला उठी थी.

और अगले दो रोज़ बाद उसने अपना दिल की बातों को किसी पवित्र नदी की तरह बह जाने दिया था. जिसका हर शब्द मेरे मन को स्पर्श करते हुए कह रहा था -"मैं तुमसे बेहद मोहब्बत करती हूँ."

सुनो आज मैं तुमसे एक बार फिर कहना चाहता हूँ - "तुम मेरे लिए इस दुनिया की सबसे खूबसूरत आत्मा हो."

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तुम बिन मेरी भाषा की पवित्रता बची नहीं रह जाती

>> 15 May 2011

सुबह से शाम तक तुम्हारी आवाज़ के लिए तरसता रहा. हमारी स्मृतियों के आईने में तुम्हारा होना खोजता रहा. उलट-पलट के उन बीत गए बेतरतीब पलों की श्रंखलित कड़ियाँ बनाने का प्रयत्न करता रहा किन्तु हर नए क्षण यह ख़याल हो आता की किस पल को कहाँ जोडूँ. हर लम्हा जो तुम्हारे साथ बिताया है वो बेशकीमती है. तुम्हारी उजली हंसी की खनक कानों में रह-रह कर गूंजती रही. मन की रिक्तता को भरने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु तुम नहीं तो कुछ भी नहीं. तुम जब पास होती हो तो कुछ भी और पा लेने की तमन्ना बची नहीं रह जाती. जीवन में तुम्हारे सिवा मुझे और कुछ नहीं चाहिए. तुम हो तो सब कुछ है, नहीं तो कुछ भी नहीं.

भावनाओं के समुद्र से तैरकर बाहर आने का मैं लाख प्रयत्न करूँ किन्तु हर बार ही डूब-डूब जाता हूँ. कई दफा मैंने इसके परे भी जाने का प्रयत्न किया है और जानना चाहा है कि क्या यह केवल प्रेम की कोमल भावना ही है ? इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं ?

मन का पोस्टमार्टम कर देने से केवल उसकी चीर-फाड़ ही संभव है. उसमें बसी आत्मा फिर भी कहीं रह जाती है. सच कहूँ तो तुम मेरे मन की वह आत्मा हो.

देर रात तक करवटें बदलता रहा. मन उदासियों से भरा हुआ था. कई दफा मन को बहलाने का प्रयत्न करता रहा. किन्तु यह संभव ना हो सका. तुम्हारे बिना कुछ भी तो अच्छा नहीं लगता. ना गीत गुनगुनाना, ना कविता बुनना और ना ही किसी कहानी की तिकड़मबाज़ी करना. तुम बिन मेरी भाषा की पवित्रता बची नहीं रह जाती.

दो बजे हैं और चार को तुम्हें जगाना भी है. जहाँ दूर कहीं तुम न जाने सो रही होगी या जाग रही होगी. जानता हूँ यही कहोगी कि देखना तबियत ख़राब कर ली तो तुम से बात नहीं करुँगी.

अभी-अभी मर जाने का ख़याल आया और मैंने उसे चले जाने दिया. याद हो आया तुम्हें मेरे साथ एक लम्बी जिंदगी जीनी हैं.

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तुम्हारे बिना मैं सूखी नदी हूँ

>> 12 May 2011

कल शाम जब रेल प्लेटफोर्म को छोड़ चली गयी, बाद उसके मुझे उदासियों ने आ घेरा. और फिर हर नए सैकण्ड लगने लगा कि तुम मुझसे दूर, बहुत दूर चली जा रही हो. हालांकि हम एक ही शहर में होते हुए भी रोज़ कहाँ मिल पाते थे किन्तु फिर भी ना जाने क्यों यह कैसा सिलसिला है जो थमता ही नहीं. शाम बीती और फिर रात भर दम साधे तुम्हारी आवाज़ की प्रतीक्षा करता रहा. उन बेहद निजी पलों में कई ख़याल आते और चले जाते रहे.

तुम्हारी बहुत याद आई.

सुबह बेहद वीरान और उदासियों से भरी हुई सामने आ खड़ी हुई. मन किया कि कहीं भाग जाऊं, कहाँ ? स्वंय भी नहीं जानता. जिस एकांत में तुम्हारी खुशबू घुली हुई हो और मैं पीछे छूट गयी तुम्हारी परछाइयों से लिपट कर स्वंय को जिंदा रख सकूँ. उस किसी एकांत की चाहना दिल में घर करने लगी है. देर सुबह आई तुम्हारी आवाज़ की खनक, मेरे बचे रहने को इत्मीनान कराती रही .

तुम्हारी सादगी के भोलेपन पर अपनी जिंदगी लुटा देने को मन करता है. और बाद उसके जब तुम कहती हो कि मेरे साथ का हर लम्हा तुम्हें मेरे पास होने का एहसास दिलाता है. सोचता हूँ कितने तो बेशकीमती लम्हें होंगे जो पास होने का एहसास दे जाते हैं. मेरी उदासियों के साए में उन जगमगाते रौशन कतरों को शामिल कर दो. मैं भी तुम्हारे पीछे इन दिनों को जी सकूँ. नहीं तो सच में, तुम बिन मर जाने को जी चाहता है.

तुम मेरे वजूद में इस कदर शामिल हो जैसे तुम्हारे बिना मैं कोई सूखी नदी हूँ.

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