हाँ माँ मुझे एहसास है तेरे दर्द का
>> 26 April 2009
माँ तुझे क्या दर्द है ....इसका इल्म है मुझे....तुमने बस बचपन से खोना ही तो जाना है ....बस खोना .....तुमने किया तो सिर्फ त्याग ....हाँ यही तो सिखाया गया था तुम्हें ....जब बचपन के उन सुहाने दिनों में भी ...तुम अपने परों को बांधकर जीती रही होंगी .....जब तुमने अपने ही घर में ...अपने भाई के लिए ढेर सारी कुर्बानियाँ दी होंगी .....हाँ यही तो सिखाया गया होगा तुम्हें .....औरत होना ही कुर्बानी का दूसरा नाम है .....मगर क्यूँ ...तुम हर पल ही सोचा करती होगी ...आखिर औरत ही क्यूँ .....आखिर ऐसा क्या है जो सिर्फ और सिर्फ औरत को ही त्याग की देवी बना दिया गया ....
जब तुम पढना चाहती होगी तब तुम्हें ये कह पढने से रोक लिया गया होगा ....कि भाई का पढना जरूरी है ....तुम्हें तो चूल्हा चौका ही करना है ....खाना ही तो बनाना है ....तुम तुमने खुद से ही सवाल किया होगा ...क्या मैं सिर्फ एक बावर्ची बनने के लिए बड़ी हो रही हूँ ....और आगे चल कर भी सिर्फ और सिर्फ मुझे ही त्याग करना होगा ...अपनी इच्छाओं का ....अपनी भावनाओं का ....मेरा कोई निर्णय नहीं होगा ...इस सम्पूर्ण व्यवस्था में ....हाँ माँ ...तुमने सोचा जरूर होगा ....
फिर जब तुम थोडी बड़ी होने लगी होगी ...तब हर पल ही तुम्हें ये एहसास कराया गया होगा ...कि तुम एक बोझ हो जिसे तुम्हारा बाप जल्दी से जल्दी किसी घर में लादकर पटक आना चाहता है .....नहीं तो तुम्हारी शादी सही उम्र में होती .....हाँ माँ में अब समझता हूँ ...अब में जानता हूँ ...मैं महसूस करता हूँ ....
जब तुम ये सपने संजो कर आयी होगी कि मेरा जीवन साथी मेरे अरमानों का ख़याल करेगा ....तब तुम्हारा दूजे ही दिन ये भ्रम टूटा होगा कि ....एक औरत को लोग क्या समझते हैं .....वो क्या महसूस करते हैं ....हाँ माँ तुम न कहो भी तो क्या ...पर मैं अब समझता हूँ .....तुमने जो महसूस किया होगा तब से अब तक ...वो मैं सिर्फ और सिर्फ समझ ही तो सकता हूँ ....क्योंकि महसूस करने के लिए मुझे स्त्री होना होगा ....जो कि मैं नहीं हूँ
फिर हर पल ही तो इस चलते हुए जीवन के हर कदम पर ...खुद का त्याग ही किया है ...कभी भावनाओं का ....कभी इच्छाओं का ....कभी परिवार की खातिर ...कभी बच्चों की खातिर ...तो कभी उस पति की खातिर ....जिसकी तुम पूजा करती रही हो .....पर क्या दिया उसने तुम्हें ....सिर्फ और सिर्फ लाचारी ....बांध कर रहने की ....खामोश बने रहने की .....बस सिर्फ और सिर्फ उसकी सुनने की ...क्या यही जीवन है ....हाँ माँ मैं अब सोचता हूँ ....अब मैं समझता हूँ ...
तुम जब माँ बनी होगी ...तब भी इस खौफ से दो चार हुई होगी ...कि कहीं तुम्हारा अस्तित्व ..फिर से स्त्री बनकर जन्म न ले ...अगर ऐसा हुआ तो ....ये रहमोकरम करने वाले ...तुम्हें पल पल उलाहना देंगे ...तुम्हारा जीना मुहाल कर देंगे ....तुम्हें पुत्र ही पैदा करने के लिए ...कितना दबाया होगा ...जैसे कि इसके लिए तुम और सिर्फ तुम ही जिम्मेदार हो ....जैसे कि तुम एक मशीन हो ....जिसे पता है कि मुझे क्या पैदा करना है ....हाँ माँ अब मैं सोचता हूँ ये सब ...क्योंकि अब मैं समझता हूँ ..
और जब पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ ....तुम अपने पति को भगवान् मान चुकी हो .....तुम उसे पूजती हो ....तब एक दिन तुम्हें पता चलता है ....वो कहीं और मुंह मारने लगा है ....तुम तब भी शांत रही ....तुमने सोचा कि शायद वो सुधर जाये ...खुद ही संभल जाए ...पर माँ वो ऐसे गिरा कि गिरता ही चला गया .....
फिर तुमने झेली दुत्कार ....उसकी मार ...अत्याचार ...उसकी बेहूदगी ...शोषण ....और अंत में क्या मिला तुम्हें ...इन सबके बावजूद ....क्या ? ...सिर्फ और सिर्फ अकेलापन ....रुसवाई ......जब उसने किसी और का दामन थाम लिया ...तुम्हें छोड़ कर चला गया ...इस जंगल रुपी दुनिया में अकेला ....अपने हिस्से को उसने प्यार का नाम दिया ....और किसी और के साथ घर बसा ...वो गुलछर्रे उड़ा रहा है .....तुम और तुम्हारे बच्चे .....आखिर तुम फिर से उसी राह पर खड़ी हो ...जहाँ से तुमने शुरुआत की थी ....
हाँ माँ में सोचता हूँ .... एहसास को ....तुम्हारी भावनाओं को ....इस पल तुम सोच रही होगी ...कि काश मेरे बाप ने मुझे पढाया होता ...काश यूँ उसने भी मेरे साथ एक बेटे जैसा ही भरोसा किया होता ....मुझे बेटे की तरह ही पला होता ...तब आज मैं यूँ टूटी हुई ..बिखरी हुई न होती ...तब वो आज यूँ मुझ पर हँसता हुआ न चला जाता .....मुझे बेसहारा करके .....तब मैं भी उसे दे सकती वो जवाब ....दिखा सकती कि मैं क्या हूँ ...और क्या कर सकती हूँ ....पर काश कि बचपन में मुझे भी एक बेटे जैसे पाला गया होता ....हाँ माँ में अब समझता हूँ ....हाँ माँ में अब सोचता हूँ
तुम्हें देखा है मैंने पत्थर तोड़ते हुए ...ईटों को ढोते हुए ....बर्तनों को मांजते हुए ....हाँ माँ अब में सब समझता हूँ ....जब इतने सब के बावजूद दोषी तुम्हें ही समझा जाता होगा ....वो इस मर्द समाज का कहना कि ...कहीं न आखिर इसमें ही खोट होगा ....हाँ मैं अब समझता हूँ इस मर्द समाज को .....इन बनाये हुए जंजाल को ....
मैंने देखा है तुम्हारी रोती हुई आँखों को ....तुम्हारी फटी हुई साडी को ....तुम्हारे त्याग को ...तुम्हारे बलिदान को ....मैंने देखा है तुम्हें रातों को जागते हुए ...इस सोच में कि बच्चों को कैसे काबिल बनाया जाये ....कैसे उन्हें पैरों पर खडा किया जाए ...हाँ माँ मैं अब समझता हूँ ...हाँ माँ अब मैं देखता हूँ ..इस समाज को ...इस व्यवस्था को ....
हाँ माँ तुम ही तो हो जिसने सिखाया है ...एक सा फैसला करना ....दोनों को एक समझना ....शिक्षा के महत्व को तुमने ही तो बतलाया है ....हाँ माँ तुमने ही तो इस दुनियां के बारे में बतलाया है ...क्या झूठ है ...क्या है दिखावा .....कैसे लोग करते हैं ढोंग ...खुद को अच्छा जताने का .... हाँ माँ अब मैं सीख रहा हूँ ....तुमसे ....हाँ माँ अब मैं समझता हूँ ....
पर महसूस कर सकती हो तो सिर्फ तुम ...या तुम जैसी कोई एक ....क्योंकि मैं समझ भर सकता हूँ और सोच भर सकता हूँ ....क्योंकि महसूस करने के लिए मुझे तुम बनना पड़ेगा .....जो तुम कभी नहीं चाहोगी .....क्योंकि तुम माँ हो न ..... पर कर सकता हूँ मैं ये ...जो तुमने हमेशा ही मुझे सिखाया है ...कि देना भरपूर प्यार ...और कोई न करना भेद भाव ....बनाना उसे शिक्षित और मजबूत इतना कि दे सके इस दुनिया को जवाब .... अगर जो बनूँ में कभी बेटी का बाप ......
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20 comments:
सचमुच माँ एक शक्तिशाली व्यक्तित्व होता है ...वो पहाड़ से भी ज्यादा मजबूत और कोमलता से भी ज्यादा कोमल होती है ...माँ का कितना भी गुणगान करो वो कम ही पद जायेगा ....
और हाँ स्त्री को शिक्षित और मजबूत होना बहुत जरूरी है तभी ...समाज और देश में बदलाव आ सकता है ..तभी वो अपने हक़ की लडाई लड़ सकती है
बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति बेहद अच्छी लगी . . आभार.
और हाँ आपने इस विषय पर संवेदनशील लेख लिखा उसके लिए आपको शुक्रिया
anil ji bahut hi marmik post hai maa ke liye to jitna likha jaye kam hai do din se mai bhi maa beti ke rishton ke bare me hi likh rahi hoon meri kavita jaroor padhen
www.veerbahuti.blogspot.com
abhar apni sanvedansheelta isi tarah banaye rakhen aur hame behtreen rachnayen milti rahen shubhkaamnayen
good post Anil!! am sure your mom is very proud of you..take care! keep writing
सभी बच्चे माँ की सीख को जीवन में उतार सके.. यही कामना है... बेहद खूबसूरत भाव ...शुभकामनाएँ
अगर हर कोई इस ठोस भाव के साथ चले तो परिवर्तन निश्चित है....
bahut sundar....
अनुत्तरित प्रश्नों से बुना हुआ एक सवेदनशील आलेख ......
सोंचती हूँ ..क्यों हर (अधिकतर ) नारी को ऐसी परिस्थितियों से गुजरा पड़ता है ..क्यों उसे दूसरों के किये गुनाह की कीमत चुकानी पड़ती है ..क्यों वह सबसे ज्यादा सह कर भी कलंकित होती है ..कोई जवाब नही मिलता ..आपने जो लिखा है मैंने वह मेरी नानी के जीवन में सच होते पाया..उसे मेरे नाना इसलिए छोड़ गए थे क्योंकि वह ५ बेटिओं के बाद भी बेटा नही जन्मा पाई ..
Ati sundar... Ek meri puraani kavitaa yaad aa gayi..
मौन हैं सब, पर
स्त्रीयता गुहारती है..
माँ के दूध की धार,
सबको दुत्कारती है..
एक ना एक दिन,
टूटेंगी सब बेडियाँ..
उठ, बाहें फड़का,
कि, मानवता पुकारती है...
~Jayant Chaudhary
मार्मिक है जी। और हर मार्मिकता की तरह कुछ एक्स्ट्रीम भी आ जाता है उसमें।
मैने अनपढ और अभावग्रस्त नारियों में जबरदस्त लीडरशिप क्वालिटी भी देखी है।
Jayant ji apni kavita ke ansh yahan pesh karne ke liye shukriya
बहुत बढ़िया अनिल जी। बहुत मार्मिक अंदाज में आपने एक बेहद महत्वपूर्ण् मुद्दे को आवाज दी। लेकिन दुख होता है जब एक पढ़ी लिखी मां भी इस तरह के अनुभवों से दो चार होती है और सब कुछ मौन झेलती है। मूल में शिक्षा या आर्थिक आधार पर महिला के सशक्त होने जितना ही महत्वपूर्ण है उसका भावनात्मक मोर्चे पर सशक्त होना। समाज की तय काराओं या सीमाओं को तार्किक स्वरूप में स्वीकार करना। खैर आपकी एक अच्छी पोस्ट ने सोच को उद्वेलित किया। मैं तो इसे ही लेखन की सफलता मानती हूं। बधाई।
बहुत बहुत शुक्रिया तरुश्री जी
स्त्री को शिक्षित और मजबूत होना बहुत जरूरी है .....puri tarah aajad tabhi ho paayege jab wah padh likh le...apne wajud ki ladaai khud lad sake...
बेहद शशक्त लिखा है आपने माँ के चरित्र को............जो मुझे लगता है इससे भी ज्यादा मजबूत है ...........माँ सब कुछ जानते हुवे भी संबल है.............
वाह अनिल भाई सुदंर भावों की सुंदर अभिव्यक्ति। माँ जैसा कोई नही। आपने तो भावुक कर दिया।
बहुत बढ़िया! ऐसे ही लिखते रहिये !
aapne rula diya.........
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